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तीर्थकर उस ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में चाँदीमय छत्राकार पैंतालीस लाख योजन प्रमाण मनुष्य क्षेत्र के बराबर विस्तार वाला सिद्ध क्षेत्र है। उसका बाहुल्य अर्थात् मोटाई मध्य में पाठ योजन प्रमाण है और अन्यत्र वह क्रम-क्रम से हीन होती गई है ---
। उत्तानस्थितमते पात्रमिव तनु तदुपरि तनुवाते।
अष्टगुणाढया सिद्धाः तिष्ठति अनंतसुखतृप्ताः ॥५५८॥
उस सिद्धक्षेत्र के ऊपर तनुवातवलय में अष्टगुण युक्त तथा अनंत सख से संतुष्ट सिद्ध भगवान रहते हैं। वह सिद्धक्षेत्र अन्त में सीधे रखे गए अर्थात् ऊपर मुख वाले वर्तन के समान है।
राजवातिक का कथन
राजवार्तिक के अन्त में इस प्रकार वर्णन पाया जाता है। तन्वो मनोजा सुरभिः पुण्या परमभासुरा।
प्राग्भारा नाम वसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता ॥१६॥
त्रिलोक के मस्तक पर स्थित प्राग्भारा नामकी पृथ्वी है, वह तन्वी है अर्थात् स्थूलता रहित है, मनोज्ञ है, सुगंध युक्त है पवित्र है तथा अत्यंत दैदीप्यमान है।
नलोकतुल्यविष्कंभा सितच्छत्रनिभा शुभा। उज़ तस्या क्षितः सिद्धाः लोकान्ते समवस्थिताः ॥२०॥
वह पृथ्वी नरलोक तुल्य विस्तार युक्त है । श्वेतवर्ण के छत्र समान तथा शुभ है । उस पृथ्वी के ऊपर लोक के अन्त में उिद्ध भगवान विराजमान हैं।
तिलोयण्णत्ति में कहा है :
अट्टम-खिदीए उरि पण्णास-भहिय-सत्तयसहस्सा। दंडाणि गंतूणं सिद्धाणं होदि प्रावासो ॥६ अध्याय-३॥
आठवीं पृथ्वी के ऊपर सात हजार पचास धनुष जाकर सिद्धों का प्रावास है।
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