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तीर्थकर भगवान के द्वारा दिए जाने वाले क्षायिक दान पर अकलंकस्वामी इस प्रकार प्रकाश डालते हैं, दानान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय होने से उत्पन्न होने वाला त्रिकालगोचर अनंत प्राणीगण का अनुग्रह करने वाला क्षायिक अभयदान होता है । “दानान्तरायस्य कर्मणोत्यंतसंक्षयादाविर्भूतं त्रिकालगोचरानंत-प्राणिगणानुग्रहकरं क्षायिकमभयदानं," पृ० ७३--जिनेन्द्रदेव के कारण अनंत जीवों को जो कल्याणदायी तथा अविनाशी सुख का कारण दान प्राप्त होता है, उसकी तुलना संसार में नहीं की जा सकती है। अन्य दानों का सम्बन्ध शरीर तक ही सीमित है । यह वीतराग प्रभु का दान, आत्मा को अनंत दुःखों से निकालकर अविनाशी उत्तम सुख में स्थापित करता है । यह सामर्थ्य अलौकिक है । उक्त दानादि का सिद्धों में कैसे सद्भाव सिद्ध होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में अकलंक स्वामी कहते हैं, "शरीरनामकर्मोदयाद्यपेक्षत्वात्तेषां तदभावे तद्प्रसङ्गः परमानंताव्याबाधरूपेणैव तेषां च तत्र वृत्तिः केवलज्ञानरूपेणानंतवीर्यवत्"---उक्त रूप से अभयदानादि के लिए शरीरनाम कर्म के उदय की अपेक्षा पड़ती है । सिद्ध भगवान के शरीर नाम कर्म के उदय का अभाव होने से उक्त प्रकार के अभय दानादि का प्रसङ्ग नहीं पायगा । जिस प्रकार केवलज्ञान रूप से उनमें अनंतवीर्य गुण माना जाता है अर्थात् अनंतवीर्य के साथ केवलज्ञान का अविनाभाव सम्बन्ध होने से केवलज्ञान होने से अनंतवीर्य का सद्भाव सिद्ध होता है, उसी प्रकार उक्त भावों का समावेश करना चाहिये।
अनंतशक्ति का हेतु
आत्मा में अनन्त शक्ति है, जो वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होती है । यह शक्ति कहना अात्मा की स्तुति नहीं है, किन्तु वास्तव में युक्ति द्वारा यह सिद्ध होती है । पं० आशाधर जी ने सागारधर्मामृत में लिखा है कि आत्मा अपने स्वरूप में निमग्न होकर
न विजेता काम को जीतती है, इसलिए आत्मा में अनन्त
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