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________________ तीर्थंकर [ २१६ वे उस समस्त सामग्री से उसी प्रकार दूर हैं, जैसे वे पहले मुनि बनने पर तपोवन में स्थित रहते हुए परिग्रह से पूर्णरूप में पृथक् थे। समन्तभद्र स्वामी कहते हैं “प्रातिहार्य-विभवैः परिष्कृतो देहतोपि विरतोभवानभूत्''--हे जिनेन्द्र ! अाप सिंहासन, भामंडल, छत्रत्रयादि प्रातिहार्यों से घिरे रहने पर भी न केवल उनसे विरक्त हैं, बल्कि अपने शरीर से भी विरक्त हैं। इस कथन के प्रकाश में जिनेन्द्र भगवान की महत्ता का उचित मूल्याँकन हो सकता है । जहाँ जगत् में सभी व्यक्ति परिग्रह-पिशाच के अधीन हैं, वहाँ जिनेन्द्रदेव की उक्त स्थिति अलौकिक है। अकलंक स्वामी की दृष्टि अकलंक स्वामी ने राजवार्तिक में लिखा है, सम्पूर्ण भोगान्तराय के तिरोभाव हो जाने से अतिशयों का आविर्भाव होता है । इससे भगवान के क्षायिक अनंतभोग कहा है । इसके फलस्वरूप पंचवर्ण सहित सुगंधित पुष्पों की वर्षा, चरणों के निक्षेप के स्थान में अनेक प्रकार की सुगन्धयुक्त सप्त सप्त कमलों की पंक्ति, सुगन्धित धूप, सुखद शीतल पवन आदि की प्राप्ति होती है। उनके शब्द इस प्रकार हैं; "कृत्स्नस्य भोगाँतरायस्य तिरोभावादाविर्भूतोतिशयवाननंतो भोगः क्षायिकः यत्कृताःपंचवर्णसुरभि-कुसुमवृष्टि-विविधदिव्यगंधचरण-निक्षेप स्थानसप्तपद्मपंक्तिसुगंधि-धूप-सुखशीतमारुतादयो भावाः ।" __क्षायिक उपभोग के विषय में आचार्य का कथन है, परिपूर्णरूप से उपभोगान्तराय कर्म के नाश होने से उत्पन्न होने वाला अनंत उपभोग क्षायिक है । इसके कारण सिंहासन, बालव्यजन (पंखा) अशोक वृक्ष, छत्रत्रय, प्रभामंडल, गम्भीर तथा मधुर स्वर रूप परिणमन वाली देव दुन्दभि आदि पदार्थ होते हैं-"निरवशेषस्योपभोगान्तराय कर्मणः प्रलयात्प्रादुर्भूतोऽनंत-उपभोगः क्षायिको यत्कृताः सिंहासनवालव्यजनाशोकपादप - छत्रत्रय - प्रभामण्डल - गम्भीरस्निग्धस्वर परिणाम-देवदुन्दुभिप्रभृतयो भावाः” (पृ० ७३ राजवातिक)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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