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________________ तीर्थकर [ २०९ स्वर्गावतरण- जन्माभिषेक- परिनिष्क्रमण-केवलज्ञानोत्पत्ति- परिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजनां देवासुर-मानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयाना-महत्वाद्योग्यत्वादहन्तः"--अतिशय युक्त पूजा को प्राप्त होने से अर्हन्त हैं । स्वागवितरण, जन्माभिषेक, परिनिष्क्रमण अर्थात् दीक्षा, केवलज्ञान की उत्पत्ति तथा परिनिर्वाणरूप कल्याणकों में देवकृत पूजाएँ सुर, असुर, मानवों की पूजात्रों से अधिक होने से अतिशयों के अर्ह अर्थात् योग्य होने से अर्हन्त हैं । मूलाचार में कहा है : अरहंति णमोक्कारं अरिहा पूजा सुरुत्तमा लोए । रजहंता अरिहंति य अरहंता तेरण उच्चंदे ॥५०५॥ जो नमस्कार करने योग्य हैं, पूजा के अर्ह अर्थात् योग्य हैं, लोक में देवों में उत्तम हैं; राज अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण के नाश करने वाले हैं अथवा अरि अर्थात् मोहनीय और अंतराय के नाश करने वाले हैं, इससे अरहंत कहते हैं । टीकाकार आचार्य वसुनंदि सिद्धान्त चक्रवर्ती लिखते हैं :--"येनेह कारणेनेत्थंभूतास्तेनार्हन्तः सर्वज्ञाः सर्वलोकनाथा लोकेस्मिन्नु च्यन्ते ।" वे इन कारणों से इस प्रकार है अतएव उनको अर्हन्त, सर्वज्ञ, सर्वलोक के नाथ इस लोक में कहते हैं। केवली भगवान को अंतरङ्ग कर्मक्षय की दृष्टि से 'अरिहंत' कहते हैं। उनकी समवशरण में शतइन्द्र पूजा करते हैं इस दृष्टि से उनको अरहंत कहते हैं । मूलाचार में कहा है :-- अरिहंति वंदण-णमंसणाणि अरिहंति पूय-सक्कारं। अरिहंति सिद्धिगमणं अरहंता तेण उच्चंति ॥ वंदना तथा नमस्कार के योग्य हैं, पूजा-सत्कार के योग्य हैं, सिद्धिगमन के योग्य हैं, इससे इनको 'अरहंत' (अहंत्) कहते हैं । १ अरहंत शब्द के गौरव की चर्चा करते हुए काशी विश्वविद्यालय के एक वैदिक शास्त्रज्ञ प्रोफेसर ने कहा था-"जैन शास्त्रकारों ने अनंत गुणों के भण्डार परमात्मा के पर्यायवाची अरहंत शब्द द्वारा भगवान की अपरिमित विशेषताओं की ओर दृष्टि डालती है। अन्य धर्मों में प्रयुक्त नामों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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