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________________ २०८ ] तीर्थकर अन्यकर्म मोहनीय कर्म के आधीन हैं, क्योंकि मोहनीय कर्म के बिना शेष कर्म अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होते । बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान की प्राप्ति होने पर पंच ज्ञानावरण, पंज अंतराय तथा दर्शनावरण चतुष्टय शीघ्र नष्ट हो जाते हैं और क्षीणमोही आत्मा केवली, स्नातक, परमात्मा, जिनेन्द्र बन जाता है। "रजोहननाद्वा अरिहन्ता । ज्ञानदगावरणानि रजांसीव बहिरङ्गान्तरङ्गा-शेष-त्रिकालगोचरानन्तार्थ-व्यंजन-परिणामात्मक-वस्तुविषय-बोधानुभव-प्रतिबंधकत्वात् रजाँसि ---अथवा रज का नाश करने से अरिहंत हैं । ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण रज के समान हैं । बाह्य तथा अन्तरङ्ग समस्त त्रिकालगोचर अनन्त अर्थपर्याय और व्यञ्जन पर्याय स्वरूप वस्तुओं को विषय करनेवाले बोध तथा अनुभव के प्रतिबंधक होने से वे ज्ञानावरण दर्शनावरण रज हैं। मोहनीय कर्म भी रज है, क्योंकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है उनमें जिम्ह भाव अर्थात् कार्य की मन्दता देखी जाती है । उसी प्रकार मोह से जिनका आत्मा व्याप्त हो रहा है उनके भी जिम्ह भाव देखा जाता है अर्थात् उनकी स्वानुभूति में कालुस्य, मन्दता या कुटिलता पाई जाती है। इन तीन कर्मों के क्षय के साथ अन्तराय का नाश अवश्यम्भावी है। अतएव उक्त रजों के नाश करने से अरिहंत हैं। 'रहस्याभावाद्वा अरिहंता । रहस्यमंतरायः, तस्य शेषाघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवीजवन्निःशक्तीकृताघाति-कर्मणो हननादरिहंता ।'--रहस्य का अभाव करने से अरिहंत हैं । अंतराय कर्म रहस्य है। उसका ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा मोहनीय के क्षय के साथ अविनाभाव है अंतराय के नाश होने पर अघातिया कर्म भ्रष्टबीज के समान शक्ति रहित हो जाते हैं; अतएव अंतराय के क्षय से अरिहंत कहते हैं। अरिहंत अर्थात् अर्हन्त भगवान को अर्हन् भी कहते हैं । “अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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