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________________ तीर्थंकर [ १८३ तिलोयपण्णत्ति में धर्मचक्रों के विषय में इस प्रकार कहा जक्खिंद-मत्थएK किरणुज्जल-दिव्य-धम्मचक्काणि । ठूण संठयाइं चत्तारि-जणस्स अच्छरिया ॥४--६१३॥ यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित तथा किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म-चक्रों को देखकर लोगों को आश्चर्य होता है। (१२) संपूर्ण विरोधी जीवों में भी आपस में मैत्री उत्पन्न हो गई थी। हरिवंश पुराण में लिखा है : अन्योन्य-गंधमासोढुमक्षमाणामपि द्विषाम् । मैत्री बभूव सर्वत्र, प्राणिनां धरणीतले ॥३--१७॥ जो विरोधी जीव एक दूसरे की गंध भी सहन करने में असमर्थ थे, सर्वत्र पृथ्वी तल पर उन प्राणियों में मैत्री भाव उत्पन्न हो गया था। जीवों में विरोध दूर होकर परस्पर में प्रीति भाव उत्पन्न कराने में प्रीतिकर देव तत्पर रहते थे । (१३) ध्वजा सहित अष्ट मंगल-द्रव्य युक्त भगवान का विहार होता था। भृगार, कलश, दर्पण, व्यजन (पंखा), ध्वजा, चामर, छत्र, तथा सुप्रतिष्ठ (स्वस्तिक) ये आठ मंगल द्रव्य कहे गए हैं । त्रिलोकसार में कहा है : भूगार-कलश-दर्पण-वीजन-ध्वज-चामरातपत्रमथ । सुप्रतिष्ठं मंगलानि च अष्टाधिकशतानि प्रत्येकम् ॥८६॥ ये प्रत्येक १०८ होते हैं। (१४) सर्वार्धमागधी वाणी द्वारा जीवों को शांति प्राप्त होती थी। हरिवंशपुराण में लिखा है : अमृतस्येव धारां तां भाषां सर्वार्धमागधों। पिबन् कर्णपुटर्जनी ततर्प त्रिजगज्जनः ॥३-१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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