________________
१८४ ]
तीर्थकर ___ जिनेन्द्र भगवान की सर्वार्धमागधी भाषा को अमृत की धारा के समान कर्ण-पुटों से रस पान करते हुए त्रिलोक के जीव संतुष्ट हो रहे थे।
भगवान की दिव्यध्वनि मागध नाम के व्यंतर देवों के निमित्त से सर्व जीवों को भलीप्रकार सुनाई पड़ती थी। आचार्य पूज्यपाद द्वारा रचित नंदीश्वर भक्ति में इस अर्धमागधी भाषा का नाम सार्वार्धमागधी लिखा है-“सार्वार्धमागधीया भाषा ।” टीकाकार प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने लिखा है “सर्वेभ्यो हिता सार्वा । सा चासौ अर्धमागधीया च ।” सबके लिए हितकारी को सार्व कहते हैं। वह अर्धमागधी भाषा सर्वहितकारी थी।
प्रातिहार्य
तीर्थंकर भगवान समवशरण में अष्ट प्रातिहार्यों से समलंकृत हैं। 'अट्टपा डिहेरसहियांणं' पद तीर्थंकर भक्ति में आया है। उन प्रातिहार्यों की अपूर्व छटा का जैन ग्रंथों में मधुर वर्णन पाया जाता है।
पुष्प-वर्षा
(१) पुष्प वृष्टि पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया है। आकाश से सुवास युक्त पुष्पों की वर्षा हो रही थी । इस विषय में धर्मशर्माभ्युदय काव्य का यह कथन बड़ा मधुर और मार्मिक लगता है।
वृष्टिः पौष्पी सा कुतोऽभून्नभस्तः, संभाव्यते नात्र पुष्पाणि यस्मात् । यहा ज्ञातं द्रागनंगस्य हस्तादर्हदभीत्या तत्र वाणानिपेतुः ॥२०--१४॥
आकाश से यह पुष्प की वर्षा किस प्रकार हुई ? वहाँ आकाश में पुष्पों के रहने की संभावना नहीं है ; प्रतीत होता है कि अरहंत भगवान के भय से शीघ्र ही काम के हाथ से उसके पुष्पमय बाण गिर पड़े।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org