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________________ तीर्थकर १८२ ] कमल पर उत्प्रेक्षा __ भगवान के चरणों के नीचे जो कमलों की रचना होती थी; उसके विषय में धर्मशर्माभ्युदय में बड़ा सुन्दर तथा मनोरम कथन किया गया है :-- अनणयामिव प्राप्तुं पादच्छायां नभस्तले। उपकण्ठे लुलोठास्य पादयोः कमलोत्करः ॥१६॥ यत्तदा विदधे तस्य पादयोः पर्युपासनम् । अद्यापि भाजनं लक्ष्म्या स्तेनायं कमलाकरः ॥१७०, २१ सर्ग। भगवान के चरणयुगल के समीप में आकर कमलों के समुदाय ने नभोमंडल में प्रभु के चरणों की अविनाशी छाया का लाभ लेने के लिए ही वहाँ निवास किया था। कमलों ने भगवान की विहार वेला में उनके चरणों की जो समाराधना की थी, प्रतीत होता है इसी कारण वे कमलवृन्द लक्ष्मी के द्वारा निवासभूमि बनाए गए हैं। (८) आकाश में 'जय-जय' ऐसी ध्वनि होती थी (6) संपूर्ण जीवों को परम आनंद प्राप्त होता था। हरिवंश पुराण में कहा है : विहरत्युपकाराय जिने परमबांधवे । बभूव परमानंदः सर्वस्य जगतस्तदा ॥३-२१ परम बन्धु जिनेन्द्र देव के जगत् कल्याणार्थ विहार होने पर समस्त जगत् को परम आनंद प्राप्त होता था । (१०) पृथ्वी कंटक, पाषाण, कीटादि रहित हो गई थी। धर्म-चक्र (११) भगवान के आगे एक सहस्र प्रारों वाला तथा अपनी दीप्ति द्वारा सूर्य का उपहास करता हुआ धर्मचक्र शोभायमान होता था। हरिवंशपुराण में कहा है :-- सहस्रारं हसद्दीप्त्या सहस्रकिरणद्युतिः।। धर्मचक्रं जिनस्याने प्रस्थानास्थानयोरभात् ॥३-२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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