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________________ तीर्थकर [ १८१ महत्वपूर्ण है । यदि पद्मासन मुद्रा से गमन होता तो एक चरण के नीचे एक कमल की रचना का उल्लेख नहीं होता। पद्मासन नाम की विशेष मुद्रा से प्रभु का विहार नहीं होता है, किन्तु यह सत्य है कि प्रभु के चरण पद्मों को आसन बनाते हुए विहार करते हैं। 'पद्मासन से' वे विहार नहीं करते, किन्तु 'पद्मासन पर' अर्थात् पद्मरूपी आसन पर वे विहार करते हैं, यह कथन पूर्णतया सुसङ्गत है। परम स्थान के प्रतीक सप्त सप्त पदों की रचना सम्भवतः सप्त परमस्थानों की प्रतीक लगती है। धर्म का प्राश्रय ग्रहण करने वाला सप्त परम स्थानों का स्वामित्व प्राप्त करता है । महापुराण में सप्त परम स्थानों के नाम इस प्रकार कहे गए हैं : सज्जातिः सद्गहित्वं च पारिवाज्यं सुरेन्द्रता। साम्राज्यं परमार्हन्त्यं परं निर्वाणमित्यपि ॥३८--६७॥ भगवान विहार करते समय चरणों को मनुष्य के समान उठाते थे, इसका निश्चय महापुराण के इन वाक्यों से भी होता है, यथा : भगवच्चरण-न्यास-प्रदेशेऽधिनभः स्थलम् । मृदुःस्पर्शमुदारश्रि पंकजं हममुद्बभौ ॥२५--२७३॥ भगवान के चरणन्यास अर्थात चरण रखने के प्रदेश में, आकाशतल में कोमल स्पर्श वाले तथा उत्कृष्ट शोभा समन्वित, सुवर्णमय कमल समूह शोभायमान हो रहा था । यतो विजहे भगवान् हेमाब्ज-न्यस्त-सत्क्रमः। धर्मामृताम्बु-संवर्षस्ततो भव्याः ति दधुः॥२५--२८२॥ सुवर्णमय कमलों पर पवित्र चरण रखने वाले वीतराग प्रभु ने जहाँ-जहाँ से विहार किया, वहाँ वहाँ के भव्यों ने धर्मामृत रूपी जल की वर्षा से परम सन्तोष प्राप्त किया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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