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________________ तीर्थंकर तीर्थंकर भगवान अहिंसा के देवता हैं। उनके समीप में हिंसा के परिणाम भाग जाते हैं और क्रूर प्राणी भी करुणामूर्ति बनता है । क्रूरता का उदाहरण रौद्रमूर्ति सिंह सिंहासन के बहाने से इन दया के देवता को अपने ऊपर धारण करता हुआ प्रतीत होता है जिससे वह दोषमुक्त हो जावे। भव्य कल्पना ___ इस सम्बन्ध में उत्तरपुराण की यह उत्प्रेक्षा बड़ी भव्य तथा मार्मिक प्रतीत होती है। चंद्रप्रभ भगवान के सिंहासन को दृष्टि में रख आचार्य कहते हैं : क्रौर्यधुर्येण शौर्येण यदंहः संचितं परम् । सिंह हतुं स्वजाते व व्यूढं तस्यासनं व्यधात् ॥५४--५५॥ उन चंद्रप्रभ जिनेन्द्र का सिंहासन ऐसा शोभायमान होता था, मानो क्रूरताप्रधान पराक्रम के द्वारा संचित पापों के क्षय के हेतु वे सिंह उनके आसन में लग गए हों। इसलिए श्रेष्ट अहिंसा के शिखर पर स्थित इन तीर्थंकर प्रभु के प्रसाद से प्राणियों को अव परित्राण प्राप्त होता है। (४) केवली भगवान के कवलाहार का प्रभाव पाया जाता है। उनकी आत्मा का इतना विकास हो चुका है, कि स्थूल भोजन द्वारा उनके दृश्यमान देह का संरक्षण अनावश्यक हो गया है । अब शरीर रक्षण के निमित्त बलप्रदान करने वाले सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं का आगमन बिना प्रयत्न के हुआ करता है। (५) भगवान के घातिया कर्म का क्षय होने से उपसर्ग का बीज बनने वाला असाता वेदनीयकर्म शक्ति शून्य बन जाता है, इसलिए केवलज्ञान की अवस्था में भगवान पर किसी प्रकार का उपसर्ग नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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