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तीर्थकर
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ये दश अतिशय उत्पन्न होते हैं :
गव्यूतिशतचतुष्टय-सुभिक्षता-गगनगमन-मप्राणिवधः। भुक्त्युपसर्गाभाव-श्चतुरास्यत्वं च सर्वविद्येश्वरता ॥३॥
अच्छायत्व-मपक्ष्मस्पंदश्च समप्रसिद्ध-नखकेशत्वं । स्वतिशयगुणा भगवतो घातिक्षयजा भवंति तेपि दर्शव ॥४॥
नन्दीश्वर भक्टि (१) चार सौ कोश भूमि में सुभिक्षता । श्लोक में आगत गव्यूति का अर्थ प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने एक 'कोस गव्यूति: क्रोशमेकं' किया है। तीर्थंकर देव के दयामय प्रभाव से सभी संतुष्ट, सुखी तथा स्वस्थता संपन्न होते हैं। इन जिनेन्द्र देव के आत्म-प्रभाव से वनस्पति आदि को स्वयमेव परिपूर्णता प्राप्त होने से पृथ्वी धन-धान्य से परिपूर्ण हो जाती है । श्रेष्ठ अहिंसामयी एक आत्मा का यह अपूर्व प्रभाव है । इससे यह अनुमान स्वयं निकाला जा सकता है कि पापी तथा जीव वध में तत्पर रहने वालों के चारों ओर दुर्भिक्षता आदि का प्रदर्शन रोती हुई दुःखी पृथ्वी के प्रतीक रूप है ।
(२) आकाश में गमन होना । योग के कारण भगवान के शरीर में विशेष लघुता (हल्कापन) आ जाती है, इससे उनको शरीर की गुरुता के कारण भूतल पर अवस्थित नहीं होना पड़ता है । पक्षियों में भी गगन गमनता पाई जाती है, किन्तु इसके लिए पक्षियों को अपने पक्षों का (पंखों का) संचालन करना पड़ता है।
केवली भगवान का शरीर स्वयमेव पृथ्वी का स्पर्श नहीं करके आकाश में रहता है । उनका गगन-गमन देखकर यह स्पष्ट हो जाता है, कि इतर संसारी जीवों के समान अब ये योगीन्द्र-चूड़ामणि भूतल के भार स्वरूप नहीं हैं ।
दया का प्रभाव
(३) अप्राणिवध अर्थात् अर्हन्त के प्रभाव से उनके चरणों के समीप आने वाले जीवों को अभयत्व अर्थात् जीवन प्राप्त होता है ।
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