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________________ तीर्थंकर [ १७७ महत्व की बात यह ध्यान देने योग्य बात है कि जब प्रभु के शरण में आने वाला जीव यम के प्रचंड प्रहार से बच जाता है ; तब उन सर्वज्ञ जिनेन्द्र पर दुष्टव्यंतर, क्रूर मनुष्य अथवा हिंसक पशुओं द्वारा संकट का पहाड़ पटका जाना नितांत असंभाव्य है । जो लोग भगवान पर उपसर्ग होना मानते हैं, वे वस्तुतः उनके अनंतसुखी तथा केवलज्ञानी होने की अलौकिकता को बिलकुल भुला देते हैं। चतुराननपने का रहस्य (६) समवशरण में भगवान का मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रहता है, किन्तु उनके चारों ओर बैठने वाले बारह सभा के जीवों को ऐसा दिखता है कि भगवान का मुख चारों दिशा में ही हैं । अन्य संप्रदाय में जो ब्रह्मदेव को चतुरानन कहने की पौराणिक मान्यता है, उसका वास्तव में मूल बीज परम-ब्रह्म रूप सर्वज्ञ जिनेन्द्र के आत्म तेज द्वारा समवशरण में चारों दिशाओं में पृथक् पृथक् रूप से उन प्रभु के मुख का दर्शन होना है । (७) भगवान सर्व विद्या के ईश्वर कहे जाते हैं, क्योंकि वे सर्व पदार्थों को ग्रहण करने वाली कैवल्य ज्योति से समलंकृत हैं। आचार्य प्रभाचंद ने द्वादशांग रूप विद्या को सर्वविद्या शब्द के द्वारा ग्रहण किया है । उस विद्या के मूलजनक ये जिनराज प्रसिद्ध हैं । टीकाकार के शब्द ध्यान देने योग्य हैं :-- "सर्व-विद्यश्वरता--सर्वविद्या द्वादशांग-चतुर्दशपूर्वाणि तासां स्वामित्वं । यदि वा सर्वविद्या केवलज्ञानं तस्या ईश्वरता स्वामिता" (क्रियाकलाप प० २४०) (८) श्रेष्ट तपश्चर्या रूप अग्नि में भगवान का शरीर तप्त हो चुका है। केवली बनने पर उनका शरीर निगोदिया जीवों से रहित हो गया है । 'वह स्फटिक सदृश बन गया है, मानो शरीर भी १-पुढवीअादि चउण्हं केवलियाहारदेवणिरयंगा। अपदट्ठिदा-णिगोदहि पदिट्टिदंगा हवे सेसा ।।। --गोम्मटसारजीवकाण्ड २०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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