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तीर्थंकर
पांच हजार धनुष प्रर्थात् बीस हजार हाथ प्रमाण ऊंचाई पर रहता है । यह पांच मील पांच फर्लांग, सौ गज प्रमाण है । तिलोयपण्णत्ति में कहा भी है :
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जादे केवलणाणे परमोरालं जिणाण सव्वाणं ।
गच्छदि उवर चावा पंचसहस्साणि वसुहाश्रो ।।४ -- ७०५ ॥
केवलज्ञान उत्पन्न होने पर सम्पूर्ण जिनेन्द्रों का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पांच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है । दिव्य प्रभाववश अत्यंत शीघ्र भव्य जीव बीस हजार प्रमाण सीढ़ियों पर चढ़कर समवशरण में सर्वज्ञ देव के दर्शनार्थ जाते हैं, किन्तु जिनका संसार परिभ्रमण शेष है तथा मिथ्यात्व का जिनके तीव्र उदय है ऐसे जीव समवशरण की ओर जाने की कामना ही नहीं करते हैं । अनेक जीव तो समवशरण को इन्द्रजाल कहते हुए सरल जीवों को बहकाते फिरते हैं । इस प्रकार विचार करने पर बुद्धादि का विशेष कर्मोदय के कारण समवशरण में न जाना पूर्ण स्वाभाविक दिखता है । स्वयं एक मत-संचालक के मन में अपने पक्षका विशेष मोह बस जाने से प्रतिपक्षी के वैभव देखने का मन नहीं होता । कुछ ऐसी ही मनोदशा बुद्ध को समवशरण में जाने से रोकती होगी । प्रतिद्वंद्वी की चित्त वृत्ति संतुलित नहीं रहती । वहाँ हृदय कषाय से अनुरंजित रहता है । कषाय की सामर्थ्य अद्भुत होती है । यही कारण है कि बुद्ध की दृष्टि एकान्त पक्ष से बच न सकी ।
सीढ़ियां
सुर-नर- तिरियारोहण सोवाण चउदिसासु पत्तेषकं ।
बीस - सहस्सा गयणे कणयमया उडढउड्डुम्मि ||४-- ७२० ॥
सुर नर तथा तिर्यंचों के चढ़ने के लिये चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर-ऊपर सुवर्णमय बीस हजार सीढ़ियाँ होती हैं । वे सीढ़ियाँ एक हाथ ऊँची और एक हाथ विस्तार वाली थीं ।
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