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तीर्थंकर
श्रागमन का आधार
शंकाशील व्यक्ति सोचता है, समवशरण में जहाँ देखो वहाँ रत्नों मणियों, सुवर्णादि बहुमूल्य वस्तुओं का उपयोग हुआ है, यह कैसे संभव हो सकता है ? जिस समय तीर्थंकर भगवान साक्षात् विराजमान रहते हैं, उस समय तो 'हाथ कंकण को आरसी क्या' के नियमानुसार प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा शंका का निवारण हो जाता है । आज जब यहाँ तीर्थंकर का प्रभाव है, तब उन लोकोत्तर बातों की प्रामाणिकता का मुख्य आधार है आगम की वाणी ।
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आगम बताता है कि तेरहवें गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति का उदय होता है । समस्त पण्य प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति का सर्वोपरि स्थान है । वह प्रकृति बड़ी विलक्षण है । उसके प्रभाव से सभी बातें तीर्थंकर में चमत्कार पूर्ण प्रतीत होती हैं । वास्तव में यह दयामयी जीवन वृत्ति का चमत्कार है । अहिंसा की सामर्थ्य तथा महिमा का यह ज्ञापक है ।
जिन सिद्धान्तों में शुक्रवत् दया का पाठ किया जाता है, किन्तु जीव वध का त्याग नहीं किया जाता, वे दया रूपी कल्पतरू के अलौकिक फलों की क्या कल्पना कर सकते हैं ? युक्ति और सद्विचार द्वारा भी तीर्थंकरत्व का परिपाक उसकी बीज रूप भावनाओं को ध्यान में रखने पर स्वाभाविक लगता है । योग तथा तपस्या का अवलंबन लेकर आत्मा तीन लोक में अपूर्व कार्य करने में समर्थ होती है । रागी द्वेषी, मोही तथा पाप पंक में निमग्न प्राणी के द्वारा पुद्गल का कुत्सित खेल देखने में आता है, वही पुद्गल वीतराग का निमित्त पाकर अत्यन्त मधुर, प्रिय तथा अभिवंदनीय वैभव और विभूति का दृश्य दिखाता है ।
पवित्रता का प्रभाव
अंतःकरण में पवित्रता की प्रतिष्ठा होने पर बाह्य प्रकृति दासी के समान पुण्यवान की सेवा करती है । भगवान के गर्भ में आने
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