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तीर्थंकर
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में मकर के आकार के सौ तोरण होते हैं । भव्य जीव इन स्तूपों का अभिषेक, पूजन तथा प्रदक्षिणा करते हैं (८४५ – ८४७ )
भव्य कूट का चमत्कार
हरिवंशपुराण से ज्ञात होता है
कि भव्यकूट नामके स्तूपों उस भव्यकूट के द्वारा भव्य
का दर्शन भव्यजीव ही कर सकते हैं । अभव्य का भेद स्पष्ट ही जाता है । यह तीर्थंकर भगवान का दिव्य प्रभाव है, जो ऐसी कल्पनातीत बातें वहाँ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं ।
भव्यकूट तथा भास्वत्कूट नाम के स्तूप होते हैं । भव्यकूट
के तेज के कारण प्रभव्यों की दृष्टिबन्द हो जाती है, इससे वे उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं । इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि स्तूपपर्यन्त भव्य जीव भी समवशरण में पहुँच सकते हैं । वे भगवान के समीप पहुँचकर कोठों में नहीं बैठते हैं । जीव के भावों की विचित्रता के कारण इस प्रकार का आश्चर्यप्रद परिणाम होता है । वस्तु का स्वभाव अपूर्व होता है । वह तर्क के अगोचर कहा गया है ।
प्रश्न
भव्यकूटाख्या स्तूपा भास्वत्कूटास्ततोऽपरे ।
यानभव्या न पश्यंति प्रभावांधीकृतेक्षणाः ॥ ५७-- १०४ ॥
समवशरण के महान प्रभाव को ध्यान में रखकर कभी-कभी यह शंका उत्पन्न होती है कि महावीर भगवान के समकालीन गौतम बुद्ध पर भगवान के समवशरण का दिव्य प्रभाव क्यों नहीं पड़ा दोनों राजगिरि में रहे हैं ।
?
समाधान
इस प्रश्न का उत्तर सरल है । भगवान का समवशरण पृथ्वीतल पर स्थित सभा भवन के समान होता, तो बुद्ध का वहाँ पहुंचना संभव था, किन्तु आगम से ज्ञात होता है कि समवशरण भूतल से
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