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________________ तीर्थंकर [ १७१ में मकर के आकार के सौ तोरण होते हैं । भव्य जीव इन स्तूपों का अभिषेक, पूजन तथा प्रदक्षिणा करते हैं (८४५ – ८४७ ) भव्य कूट का चमत्कार हरिवंशपुराण से ज्ञात होता है कि भव्यकूट नामके स्तूपों उस भव्यकूट के द्वारा भव्य का दर्शन भव्यजीव ही कर सकते हैं । अभव्य का भेद स्पष्ट ही जाता है । यह तीर्थंकर भगवान का दिव्य प्रभाव है, जो ऐसी कल्पनातीत बातें वहाँ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं । भव्यकूट तथा भास्वत्कूट नाम के स्तूप होते हैं । भव्यकूट के तेज के कारण प्रभव्यों की दृष्टिबन्द हो जाती है, इससे वे उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं । इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि स्तूपपर्यन्त भव्य जीव भी समवशरण में पहुँच सकते हैं । वे भगवान के समीप पहुँचकर कोठों में नहीं बैठते हैं । जीव के भावों की विचित्रता के कारण इस प्रकार का आश्चर्यप्रद परिणाम होता है । वस्तु का स्वभाव अपूर्व होता है । वह तर्क के अगोचर कहा गया है । प्रश्न भव्यकूटाख्या स्तूपा भास्वत्कूटास्ततोऽपरे । यानभव्या न पश्यंति प्रभावांधीकृतेक्षणाः ॥ ५७-- १०४ ॥ समवशरण के महान प्रभाव को ध्यान में रखकर कभी-कभी यह शंका उत्पन्न होती है कि महावीर भगवान के समकालीन गौतम बुद्ध पर भगवान के समवशरण का दिव्य प्रभाव क्यों नहीं पड़ा दोनों राजगिरि में रहे हैं । ? समाधान इस प्रश्न का उत्तर सरल है । भगवान का समवशरण पृथ्वीतल पर स्थित सभा भवन के समान होता, तो बुद्ध का वहाँ पहुंचना संभव था, किन्तु आगम से ज्ञात होता है कि समवशरण भूतल से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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