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________________ १६८ ] तीर्थकर त्वमसि विश्वदृग् ईश्वरः विश्वसृट् त्वमसि विश्वगुणांबुधिरक्षयः। त्वमसि देव जगद्धितशासनः स्तुतिमतोऽनुगृहाण जिनेश नः ॥२३-१२२॥ हे ईश्वर ! आप केवलज्ञान नेत्र द्वारा समस्त विश्व को जानते है, कर्मभूमि रूपी जगत के निर्माता होने से विश्वसृट् हैं । विश्व अर्थात् समस्त गुणों के समुद्र हैं, क्षय रहित हैं, आपका शासन जगत का कल्याण करने वाला है ; इसलिए हे जिनेश ! हमारी स्तुति को स्वीकार कीजिए :-- मनसिजशत्रुमजय्यमलक्ष्यम् विरतिमयी शितहेति-ततिस्ते ॥ समरभरे विनिपातयतिस्म त्वमसि ततो भुवनैकगरिष्ठः॥२३--१२७॥ हे भगवान ! आपने दूसरों के द्वारा अजेय तथा अदृश्यरूप युक्त कामशत्रु को चरित्ररूपी तीक्ष्ण शस्त्रों द्वारा युद्ध में नष्ट कर दिया है, अतएव आप त्रिभुवन में अद्वितीय तथा श्रेष्ठ गुरु हैं । जितमदनस्य तवेष महत्वं वपुरिदमेव हि शास्ति मनोज्ञं ; न विकृतिभाग्न कटाक्षे निरीक्षा परम-विकारमनाभरणोद्धम् ॥२३--१२८॥ हे ईश ! जो कभी भी विकार को नहीं प्राप्त होता है, न कटाक्ष से देखता है, जो विकार रहित है और आभूषणों के बिना सुशोभित होता है ऐसा यह अापका प्रत्यक्ष नयनगोचर सुन्दर शरीर ही कामदेव को जीतने वाले आपके महत्व को प्रगट करता है। त्वं मित्रं त्वमसि गुरुस्त्वमेव भर्ता । त्वं स्रष्टा भुवनपिता-महस्त्वमेव । त्वां ध्यायन् अमृतिसुखं प्रयाति जन्तुः। त्रायस्व त्रिजगदिदं त्वमद्य पातात् ॥२३--१४३॥ हे प्रभो ! इस जगत् में प्रापही प्राणिमात्र के मित्र हैं । आप ही गुरु हैं । आप ही स्वामी हैं । अापही विधाता हैं । आप जगत् के पितामह हैं । आपका ध्यान करनेवाला जीव अमृत्यु के आनन्द को प्राप्त करता है । इसलिए हे देवाधिदेव भगवन् ! आज आप तीन लोकों के जीवों की संसार-सिंधु में पतन से रक्षा कीजिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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