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व्यंतर ८,
यह स्तुति मुख्य मुख्य इन्द्रों ने ( भवनवासी १०, ज्योतिषी २ और कल्पवासी १२) सुर, असुर, मनुष्य, नागेन्द्र, यक्ष, सिद्ध, गन्धर्व तथा चारणों के समूह के साथ की थी । इसके अनन्तर सब यथायोग्य स्थानों में बैठ गए ।
तीर्थंकर
अद्भुत प्रभाव
भगवान की धर्मसभा में उनके अद्भुत प्रभाव के कारण सभी जीवों को अवकाश मिलता था । तिलोयपण्णत्ति में लिखा है :-- कोट्ठाणं खेत्तादो जीववखेत्तं फलं श्रसंखगुणं । होदूण प्रपुट्ठत्तिहु जिणमाहप्पेण ते स्त्रे ॥४--६३०॥
समवशरण में स्थित जीवों का क्षेत्रफल कोठों ( सभाओं) के क्षेत्रफल से यद्यपि असंख्यात गुणा है, तो भी सब जीव जिन भगवान के माहात्म्यवश परस्पर में अस्पृष्ट अर्थात् पृथक्-पृथक् रूप से बैठे हुए रहते हैं ।
संखेज्जजोयणाणि बालप्पहूदी पवेस- णिग्गमणे ।
तोमुहुत्तकाले जिणमाहप्पेण गच्छति ॥४--६३१॥
जिनेन्द्र भगवान के प्रभाववश बालक आदि जीव प्रवेश करने तथा निकलने में अंतर्मुहूर्तकाल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं ।
मिच्छाइट्ठि प्रभव्वा तेसुमसण्णी न होंति कइश्राइं । तय प्रणवसाया संदिद्धा विविह-विवरीदा ।। ६३२ ॥
इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य, असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते । ग्रनध्यवसाय युक्त, संदेह युक्त तथा विविध विपरीतताओं सहित जीव भी नहीं रहते हैं ।
प्रातंक - रोग - मरणुप्पत्तीश्रो वेरकामबाधाश्रो । तण्हा - छुह - पीडाम्रो जिणमाहप्पेण ण हवंति ॥ ९३६ ॥ जिन भगवान की
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महिमा के कारण वहां जीवों को आतंक,
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