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________________ [ १६९ व्यंतर ८, यह स्तुति मुख्य मुख्य इन्द्रों ने ( भवनवासी १०, ज्योतिषी २ और कल्पवासी १२) सुर, असुर, मनुष्य, नागेन्द्र, यक्ष, सिद्ध, गन्धर्व तथा चारणों के समूह के साथ की थी । इसके अनन्तर सब यथायोग्य स्थानों में बैठ गए । तीर्थंकर अद्भुत प्रभाव भगवान की धर्मसभा में उनके अद्भुत प्रभाव के कारण सभी जीवों को अवकाश मिलता था । तिलोयपण्णत्ति में लिखा है :-- कोट्ठाणं खेत्तादो जीववखेत्तं फलं श्रसंखगुणं । होदूण प्रपुट्ठत्तिहु जिणमाहप्पेण ते स्त्रे ॥४--६३०॥ समवशरण में स्थित जीवों का क्षेत्रफल कोठों ( सभाओं) के क्षेत्रफल से यद्यपि असंख्यात गुणा है, तो भी सब जीव जिन भगवान के माहात्म्यवश परस्पर में अस्पृष्ट अर्थात् पृथक्-पृथक् रूप से बैठे हुए रहते हैं । संखेज्जजोयणाणि बालप्पहूदी पवेस- णिग्गमणे । तोमुहुत्तकाले जिणमाहप्पेण गच्छति ॥४--६३१॥ जिनेन्द्र भगवान के प्रभाववश बालक आदि जीव प्रवेश करने तथा निकलने में अंतर्मुहूर्तकाल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं । मिच्छाइट्ठि प्रभव्वा तेसुमसण्णी न होंति कइश्राइं । तय प्रणवसाया संदिद्धा विविह-विवरीदा ।। ६३२ ॥ इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य, असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते । ग्रनध्यवसाय युक्त, संदेह युक्त तथा विविध विपरीतताओं सहित जीव भी नहीं रहते हैं । प्रातंक - रोग - मरणुप्पत्तीश्रो वेरकामबाधाश्रो । तण्हा - छुह - पीडाम्रो जिणमाहप्पेण ण हवंति ॥ ९३६ ॥ जिन भगवान की Jain Education International महिमा के कारण वहां जीवों को आतंक, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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