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तीर्थकर
[ १६५ सामग्री
पूजा की उज्ज्वल तथा अपूर्व सामग्री ऐसी प्रतीत होती थी, मानों संसार की द्रव्यरूपी सम्पत्ति भगवान के चरणों की पूजा के हेतु वहाँ आई हो । महापुराणकार कहते हैं कि इन्द्राणी ने विविध सामग्री से पूजा करते हुए दीपकों द्वारा पूजा की। इस विषय में प्राचार्य का कथन बड़ा सुन्दर है :--
ततो रत्नदोपै जिनांगातीनां । प्रसर्पण मन्दीकृतात्मप्रकाशः ॥ जिनाकं शची प्रविचत भक्तिनिघ्ना।
न भक्ता हि युक्तं विदंत्यप्ययुक्तम् ॥११२॥
भक्ति के वशीभूत शची ने जिनेन्द्रदेव के शरीर की कांति द्वारा जिनका प्रकाश मन्द पड़ गया है, ऐसे रत्नदीपकों के द्वारा जिनसूर्य की पूजा की। भक्तप्राणी युक्त तथा अयुक्तपने का विचार नहीं रखते ।
देव-देवेन्द्रों ने सर्वज्ञ भगवान की पूजा, की। महापुराणकार कहते हैं :
इतीत्थं स्वभक्त्या सुररचितेर्हन् । किमेभिस्तु कृत्यं कृतार्थस्य भर्तुः॥ विरागो न तुष्यत्यपि द्वेष्टि वासो। फलश्च स्वभक्तानहो योयुजीति ॥२३-११५॥
इस प्रकार भक्तिपूर्वक देवों ने अर्हन्त भगवान की पूजा की। भगवान तो कृतकृत्य थे। इस पूजाभक्ति से उनका क्या प्रयोजन है ? मोह का क्षय करने से वे वीतराग हो चुके थे, अतः किसी से न संतुष्ट होते थे और न अप्रसन्न होते थे, तथापि अपने भक्तों को इष्ट फलों से युक्त कर देते थे, यह आश्चर्य की बात है ।
स्तवन
इन्द्रों ने बड़ी भावपूर्ण पदावली द्वारा साक्षात् तीर्थंकर केवली की स्तुति की। इन्द्र कहते हैं :
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