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________________ १६६ ] तीर्थकर इन्द्र ने अल्पायुवाली नीलांजना अप्सरा के नृत्य द्वारा भगवान के मन को भोगों से विरक्त करने का उद्योग रचा था ताकि भगवान दीक्षा लें और शीघ्र ही मोहारि-विजेता बन कर समस्त संसार-सिंधु में डूबते हुए जीवों को निकालकर कल्याणपथ में लगावें । आज समवशरण में विराजमान भगवान का दर्शन कर उस सुरराज को बड़ा हर्ष हुआ। वह कृतकृत्य हो गया । हृदय में भक्ति प्रवाहित हो रही थी। मंडल रचना उस समय इन्द्राणी ने रत्नों के चूर्ण से प्रभु के समक्ष मनोहर मण्डल बनाया। ततो नीरधारां शुचि स्वानुकारां। लसद्ररत्न-भृगारनाल-ताम् ताम् । निजां स्वान्तवृत्ति-प्रसन्नमिवाच्छां । जिनोपांघ्रि संपातयामास भक्त्या ॥२३--१०६॥ तदनन्तर इन्द्राणी ने भक्तिपूर्वक भगवान के चरणों के समीप दैदीप्यमान रत्नों के भृङ्गार की नाल से निकलती हुई पवित्र जलधारा छोड़ी, जो शची के समान ही पवित्र थी और उसकी अंत:करणवृत्ति के समान स्वच्छ तथा निर्मल थी। इंद्रों द्वारा पूजा प्रथोत्थाय तुष्टया सुरेन्द्राः स्वहस्तैः। जिनस्यां-घ्रिपूजां प्रचक्रुः प्रतीताः ॥ सगंधेः समाल्यैः सुधूपैः सदीपः।। सदिव्याक्षतैः प्राज्यापीयूषपिण्डः ॥२३--१०६॥ इन्द्रों ने खड़े होकर बड़े सन्तोष के साथ अपने हाथों से गंध, पुष्पमाला, धूप, दीप, दिव्य अक्षत तथा उत्कृष्ट अमृत पिंडों से जिनेन्द्र भगवान के चरणों की पूजा की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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