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________________ तीर्थकर [ १६५ वन, सौमनसवन और पांडुकवन के ऊपर सुमेरु की चुलिका ही सुशोभित हो रही हो। चारों ओर लटकते हुए स्थूल मोतियों की झालर से वह ऐसी सुशोभित हो रही थी मानों समुद्रों ने उसे मुक्ताओं का उपहार ही अर्पण किया हो । वह गंधकुटी सुवर्ण निर्मित मोटी और लम्बी जाली से अलंकृत थी। रत्नमय मालाओं से वह गंधकुटी शोभायमान थी। सब दिशाओं में फैलती हुई सुगंध से वह गंधकुटी ऐसी मालूम होती थी मानों सुगंध के द्वारा उसका निर्माण हुआ हो । सब दिशाओं में फैलती हुई धूप से वह ऐसी प्रतिभासित होती थी मानों धूप से बनी हो। वह सब दिशाओं में फैले हुए फूलों से ऐसी मालूम होती थी मानों वह पुष्प निर्मित ही हो । यही बात महापुराणकार ने इन शब्दों में प्रगट की है : गन्धर्गन्धमयी वासीत् सृष्टिः पुष्पमयीव च । पुष्प धूपमयी वाभात् धूपैर्या दिग्विसपिभिः ॥२३--२०॥ सिंहासन गन्धकुटी के मध्य में एक रत्नजटित सुर्वणमय सिंहासन था। उस सिंहासन पर प्रभु विराजमान थे : विष्टरं तदलंचक्रे भगवानादितीर्थकृत् । चतुभिरंगुलैः स्वेन महिम्नाऽ स्पृष्टत्तलः ॥२३--२६॥ भगवान वृषभदेव उस सिंहासन को अलंकृत कर रहे थे । उन्होंने अपनी महिमा से उस सिंहासन के तल को स्पर्श नहीं किया था। वे उससे चार अंगुल ऊंचे विराजमान थे । सौधर्मेन्द्र का प्रानन्द __ सौधर्मेन्द्र आदि ने समवशरण में प्रवेश किया। उनके आनन्द का पारावार नहीं था। सौधर्मेन्द्र के अपूर्व आनन्द का एक रहस्य था । वह स्वयं को कृतार्थ समझता था । जब भगवान गृहस्थावस्था में थे और जगत् का मोह उन्हें घेरा हुआ था, उस समय चतुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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