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________________ १६४ ] योजनप्रमिते यस्मिन् सम्ममुनं सुरासुराः । स्थिताः सुखमसंबाधं श्रहो माहात्म्य-मीशितुः ।।२२ -- २८६ ॥ अहो ! जिन - भगवान का यह कैसा माहात्म्य था, कि केवल एक योजन लम्बे-चौड़े श्रीमंडप में मनुष्य, देव और असुर एक दूसरे को बाधा न देते हुए सुख से बैठ सकते थे । पीठिका तीर्थंकर उस श्रीमंडप की भूमि के मध्य में वैडूर्यमणि की प्रथम पीठिका थी । उस पीठिका पर स्थित प्रष्ट मंगल द्रव्य रूपी सम्पदाएँ और यक्षों के उन्नत मस्तकों पर स्थित धर्म चक्र ऐसे लगते थे, मानो पीठिका रूपी उदयाचल से उदय होते हुए सूर्य बिंब ही हों । धर्मचक्रों में हजार-हजार आराओं का समुदाय था । उस प्रथम पीठिका पर सुवर्ण निर्मित प्रकाशमान दूसरा पीठ था । उसके ऊपर चक्र, गज, वृषभ, कमल, वस्त्र, सिंह, गरुड़ और माला के चिन्ह युक्त निर्मल ध्वजाएँ शोभायमान होती थीं । दूसरे पीठ पर तीसरा पीठ विविध रत्नों से निर्मित था । वह तीन कनियों से युक्त था और ऐसा सुन्दर दिखता था मानो पीठ का रूप धारण कर सुमेरु पर्वत ही प्रभु की उपासना के लिए आया हो । उस पीठ के ऊपर जिनेन्द्र भगवान विराजमान थे । आचार्य जिनसेन लिखते हैं :-- ईक् त्रिखलं पोठं अस्योपरि जिनाधिपः । त्रिलोकशिखरे सिद्धपरमेस्ठीव निर्बभौ ।।२२ -- ३०४ ।। इस प्रकार तीन कटनीदार पीठ पर जिनेन्द्र भगवान ऐसे शोभायमान होते थे, जैसे त्रिलोक के शिखर पर सिद्ध परमेष्ठी सुशोभित होते हैं । गंधकुटी तीसरे पीठ के अग्रभाग पर गंधकुटी थी । तीन कटनियों से चिन्हित पीठ पर वह गंधकुटी ऐसी सुशोभित होती थी मानो नन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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