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________________ तीर्थकर [ १६३ उसके भीतर मनुष्य, देव और मनियों की बारह सभाएँ हैं । तदनन्तर पीठिका है और उसके अग्रभाग पर स्वयंभू अरहंत देव विराजमान हैं । भगवान के मुख की दिशा अरहंत देव स्वभाव से ही पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख कर विराजमान होते हैं। कहा भी है : "देवोऽर्हप्राङ्मुखो वा नियतिमनुसरन् उत्तराशामुखो वा" ॥२३--१९३॥ द्वादश सभा __ भगवान के चारों ओर प्रदक्षिणा रूप से द्वादशसभाओं में इस क्रम से भव्यजीव बैठते हैं । प्रथम कोठे में गणधर देवादि मुनीन्द्र विराजमान होते हैं, दूसरे में कल्पवासिनी देवियां, तीसरे में आर्यिकाएँ तथा मनुष्यों की स्त्रियां, चौथे में ज्योतिषी देवियां, पांचवे में व्यंतरनी देवियां, छटवे में भवनवासिनी देवियां, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यन्तरदेव, नवमें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में पुरुषवर्ग तथा बारहवें में पशुगण बैठते हैं । मुनियों के कोठे में श्रावकादि मनुष्य नहीं बैठते हैं । श्रीमंडप भगवान रत्नमय स्तम्भों पर अवस्थित श्रीमंडप में विराजमान रहते हैं । वह उज्ज्वल स्फटिकमणि का बना हुआ श्रीमंडप अनुपम शोभायुक्त था। आचार्य कहते हैं : सत्यं श्रीमंडपः सोऽयं यत्रासौ परमेश्वरः। नृसुरासुरासानिध्ये स्वीचक्रे त्रिजगच्छ्यिम् ॥२२-२८१॥ वह श्रीमंडप यथार्थ में श्री अर्थात् लक्ष्मी का मंडप ही था, कारण वहां परमेश्वर ऋषभनाथ भगवान ने मनुष्य, देव तथा असुरों के समीप तीनों लोकों की श्री को स्वीकार किया था। इस श्रीमंडप के ऊपर यक्षों द्वारा वर्षाई गई पुष्प राशि बड़ी सुन्दर लगती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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