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तीर्थकर विजय स्तम्भ
मुनिसुव्रतकाव्य में कहा है कि घातिया कर्मों का क्षयकरके जिनेन्द्र ने मानस्तम्भ के रूप में प्रत्येक दिशा में विजयस्तम्भ स्थापित किए थे।
दुःखौघ-सर्जनपद्रं स्त्रिजगत्यजेयान् । साक्षात्रिहत्य चतुरोपि च घातिशत्रून् । स्तम्भाः जयादय इव प्रभुणा निखाताः। स्तम्भाः बभुः प्रगिदिशं किल मानपूर्वाः॥१०-३१॥
त्रिभुवन में दुःखों के निर्माण करने में प्रवीण तथा अजेय जो घातिया कर्म रूप चार शत्रु हैं, उन्हें साक्षात् नष्ट करके ही मानो जिनेन्द्रदेव से प्रारोपित किए गए विजयस्तम्भ सदृश मानस्तम्भ प्रत्येक दिशा में शोभायमान होते थे।
संक्षिप्त परिचय
महापुराण में समवशरण की रचना का संक्षेप में इस प्रकार परिचय दिया है :---
मानस्तम्भाः सरांसि प्रविमलजल-सत्खातिका-पुष्पवाटी। प्रकारो नाट्य शाला-द्वितयमुपवनं वेदिकान्तर्वजाध्या । सालः कल्पद्रुमाणां परिवृतवनं स्तूप-हावली च। प्राकारः स्फाटिकोन्त--सुर-मुनिसभापीठिकाग्रे स्वयंभूः॥१३१९२॥
सर्व प्रथम धूलीसाल के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, फिर निर्मल जलसे भरी हुई परिखा (खाई) है, फिर पुष्पवाटिका है, उसके आगे पहिला कोट है, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएँ हैं। उसके आगे दूसरा अशोक आदि का वन है। उसके आगे वेदिका है। तदनन्तर ध्वजारों की पंक्तियाँ हैं । फिर दूसरा कोट है । उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है । उसके बाद स्तूप और स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं। फिर स्फटिकमणिमय तीसरा कोट है।
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