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________________ ज्ञान-कल्याणक समवशरण शोभित जिनराजा । भवदधि, तारन-तरन जिहाजा । समन्तभद्र ने पार्श्वप्रभु के स्तवन में लिखा है : स्वयोग-निस्त्रिशनिशातधारया। निशांत्य यो दुर्जय-मोह-विद्विषम् । अवापदार्हन्त्यमचित्यमभुतम् । त्रिलोक-पूजातिशयास्पदं पदम् ॥१३३॥स्वयंभूस्तोत्र । शुक्लध्यान रूपी तलवार की तीक्ष्ण धारा के द्वारा जिन्होंने बड़े कष्ट से जीतने योग्य मोह रूपी शत्रु को मारकर अचिंत्य अर्थात् जो चिंतन के परे है, जो अद्भुत है तथा त्रिलोक के जीवों द्वारा पूजा के अतिशय का स्थान है ऐसी अर्हन्त पदवी प्राप्त की, (मया सदा पार्श्व-जिनः प्रणम्यते) उन पार्श्वनाथ भगवान को मैं सर्वदा प्रणाम करता हूँ। आदिनाथ भगवान की अभिवंदना करते हुए आचार्य समंतभद्र स्वयंभू स्तोत्र में कहते हैं : स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा निनाय यो निर्दय-भस्मसाक्रियाम् जगाद तत्वं जगते ऽथिनेजसा बभूव च ब्रह्मापदामृतेश्वरः ॥४॥ भगवान ने प्रात्म-ध्यान के तेज द्वारा अपनी आत्मा के दोषों को जड़ मूल से निर्दयता पूर्वक नष्ट कर दिया तथा उपदेशामृत के आकांक्षी जगत् को वास्तविक तत्व का उपदेश दिया और वे ब्रह्मपद अर्थात् शुद्धात्म रूप अमृत पदवी के स्वामी हुए। इन पद्यों में सर्वज्ञावस्था प्राप्त तीर्थंकर के जीवन की एक झलक प्राप्त होती है । भगवान ने अर्हन्त पदवी प्राप्त की। वह अचित्य है, अद्भत है तथा विश्व की अभिवंदना का स्थल है । ( १५८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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