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________________ १५४ ] तीर्थंकर वर्तमान युग में प्रवर्धमान मोह का साम्राज्य देख उक्त कथन कल्पना मात्र है। वीतरागता की दुर्लभता कोई-कोई गृहस्थ ऐसी बातें करते हैं, मानो वे वीतराग बन गए हों। यह मिथ्या है । वीतरागावस्था बालविनोद की बात नहीं है। कुछ भी पुरुषार्थ न करना, धर्म तथा सदाचरण से दूर भागना, सदाचार वालों की निंदा करना ही अपना ध्येय बनाने वाले वीतराग विज्ञानी बनने का स्वप्न भी देखने में असमर्थ हैं। स्व० आचार्य वीरसागर महाराज ने कहा था, 'मनी बसे स्वप्नी दिसे'--जो बात मन में निवास करती है, वह स्वप्न में दृष्टिगोचर होती है । जिनके हृदय में वीतरागता की भावना हो, उनका चरित्र बकराज की भांति न होकर राजहंस सदृश होता है । मामिक समीक्षा इस प्रसंग में प्राचार्य समंतभद्र की एक मार्मिक चर्चा ध्यान देने योग्य हैं । सांख्य दर्शन कहता है, "ज्ञानेन चापवर्गो विपर्ययादिष्यते बंध:" ज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है, अज्ञान के द्वारा बंध होता है । इस सिद्धान्त का समर्थन अन्य भारतीय दर्शन भी करते हैं। इस विचार की समीक्षा करते हुए समंतभद्र स्वामी देवागम स्तोत्र में कहते हैं : प्रज्ञानाच्चेद् ध्रुवो बंधो ज्ञेयानंत्यान केवली। ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद्वहुतोऽन्यथा ॥६६॥ अज्ञान के द्वारा नियम से बंध होता है, तो कोई भी केवलज्ञानी नहीं बनेगा, कारण ज्ञेय पदार्थ अनंत हैं। इससे बहुभाग रूप ज्ञेय पदार्थों का अज्ञान रहने से बंध होगा । कदाचित् यह कहा जाय, कि अल्प भी ज्ञान के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है, तो विद्यमान महान अज्ञान के कारण बंध भी होगा, अतएव उक्त एकान्त मान्यता स्पष्टतया सदोष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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