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तीर्थंकर
[ १५५ जैन विचार
आचार्य जैन दृष्टि को स्पष्ट करते हुए कहते हैं :-- प्रज्ञानान्मोहतो बन्धो नाज्ञानाद्वीतमोहतः। ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहतोऽन्यथा ॥६॥
मोहयुक्त अज्ञान से बंध होता है, मोहरहित अज्ञान से बंध नहीं होता । मोह रहित अल्पज्ञान के द्वारा मोक्ष होता है । मोहयुक्त अल्पज्ञान के द्वारा बंध होता है ।
इस कथन के द्वारा यह बात स्पष्ट की गई है, कि बन्ध का अन्वय-व्यतिरेक मोह के सद्भाव-असद्भाव के साथ है। अल्पज्ञान की विद्यमानता, अविद्यमानता पर वह आश्रित नहीं है। इससे मोह कर्म की प्रबलता ज्ञात होती है । आत्मा में कर्म के बन्ध करने वाले मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग हैं। इनमें योग को छोड़कर शेष सभी कारण मोहनीय कर्म के रूप हैं। इसके कारण स्थितिबन्ध तथा अनुभाग बन्ध होता है । इसके अभाव में क्षीणमोह तथा सयोगी-जिन गुणस्थानों में योग के कारण ईर्यापथ प्रास्रव होकर केवल प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं। स्थिति तथा अनुभाग बन्ध के अभाव में वे दोनों बन्ध प्रायः अकार्यकारी हैं; शून्य सदृश हैं।
मोह विजय की मुख्यता
जैन धर्म में मोह विजय को पूज्यता का कारण. माना है । अल्पज्ञानी पुरुष भी मोह को जीतने के कारण पूज्यता को प्राप्त करता है । शिवभूति मुनि अज्ञान की पराकाष्ठा को प्राप्त होते हुए भी मोह विजय के कारण केवली बन गए थे। जो शास्त्रज्ञान के अहँकार में लिप्त होने से यह सोचते हैं कि अल्पज्ञानी तपस्वी साधु हमारे समक्ष कुछ नहीं हैं, वे विकृति पूर्ण परिणाम वाले हैं । मोह विजय का कार्य अत्यन्त कठिन है । उसे कोई भी वीर संपादित नहीं कर सकता। उस मोहको जीतने वाला महावीर ही होता है ।
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