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________________ तीर्थकर [ १३५ पदार्थों के दाता नर रत्नों की सर्वत्र स्तुति की गई है । उत्तम पात्र को आहारदाता या तो उसी भव में मोक्ष को प्राप्त करता है या स्वर्ग का सुख भोगकर वह तीसरे भव में मुक्ति को पाता है । भगवान को प्रथम बार अाहार देने वाले व्यक्ति के भाव अवर्णनीय उज्ज्वलता प्राप्त करते हैं। इससे वह उत्तम दाता शीघ्र ही तप का शरण ग्रहण कर अपना उद्धार करता है । हरिवंशपुराण में कहा है :-- तपस्थिताश्च ते केचित्सिद्धास्तेनैव जन्मना। जिनांते सिद्धिरन्येषां तृतीये जन्मनि स्मृता ॥६०--२५२॥ यह तो आध्यात्मिक श्रेष्ठ लाभ है कि दातार मोक्ष को प्राप्त करता है। तत्काल लाभ यह है कि दातार के भवन में अधिक से अधिक साढ़े बारह करोड़ और कम से कम इसका हजारवाँ भाग अर्थात् एक लाख पच्चीस हजार रत्नों की वर्षा होती है । सत्पात्र के दान की अपार महिमा है । पंचाश्चर्य सत्पात्र को पाहार के दान में ही होते हैं। इससे इसकी महत्ता इतर दानों की अपेक्षा स्पष्ट ज्ञात होती है । इसका कारण यह है कि इस आहारदान से वीतराग मुनीन्द्रों की रत्नत्रय परिपालना में विशिष्ट सहायक उनके पवित्र शरीर का रक्षण होता है । गहस्थ स्वयं श्रेष्ठ तप नहीं कर पाता है, किंतु न्याय पूर्वक अपने प्राप्त द्रव्य के द्वारा वह महाव्रती का सहायक बनता है । इस कारण पात्र दान द्वारा गृहस्थ के षट्कर्मों अर्थात् असि, मषी, कृषि, शिल्प, वाणिज्य, पशुपालन तथा चक्की, चूल्हादि पंचसुना क्रियाओं द्वारा अजित महान दोषों का क्षय होता है । पाहारदान का महत्व आहार दान को महत्व प्रदान करने का एक कारण यह भी है कि तीर्थंकर भगवान जैसे श्रेष्ठ पात्र की सेवा केवल आहार दान द्वारा ही संभव है । उनको औषधि, शास्त्र तथा अभयदान कौन देगा? शरीर नीरोग रहने से औषधि का प्रयोजन नहीं, स्वयं महान ज्ञानी होने से शास्त्र दान कीभी उयोपगता नहीं प्रतीत होती, स्वयं शरणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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