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________________ ३४ ] तीर्थकर जो दूध को सदोष सोचते हैं, वे पानी भी नहीं पी सकते ? पानी में जलचर जीवों का सदा निवास रहता है। उनका जन्ममरण उसी के भीतर होता है । उनका मल, मूत्रादि भी उसके भीतर हुआ करता है, फिर भी सभी लोग जल को पवित्र मानते हैं। इसी प्रकार गतानुगतिकता या अँध-परंपरा का त्याग कर यदि मनुष्य मस्तिष्क, अनुभव तथा सद्विचार से काम लेगा, तो उसे शुद्ध साधनों द्वारा प्राप्त मर्यादा के भीतर उष्ण किया गया तथा सावधानी पूर्वक शुचिता के साथ सुरक्षित किया गया दूध अभक्ष्य कोटि के योग्य नहीं दिखेगा। प्राश्चर्य की बात यह देखकर आश्चर्य होता है कि सरासर अशुचि भोजन पान को करते हुए मांसाहार के दोषी लोग अहिंसात्मक प्रवृत्ति वालों के उज्ज्वल कार्यों को भी सकलंक सोचते हैं। उन्हें रात्रि भोजन में दोष नहीं दिखता, अनछने जल के पीने में संकोच नहीं होता, अशुद्ध अचार आदि के भक्षण करने में तथा मधु सेवन करने में निर्दोषता दिखती है । मधु की एक बिन्दु भक्षण करने में जीव घात का महान पाप लगता है, किन्तु वे उसे निर्दोष, बलदायक मानकर बिना संकोच के सेवन करते हैं, और अपने को अहिंसा व्रती सोचते हैं। अहिंसा के क्षेत्र में अंतिम प्रामाणिक निर्णयदाता के रूप में जिनेन्द्र की वाणी की प्रतिष्ठा है। उस जिनागम के प्रकाश में दूध के विषय में अभक्ष्यता का भ्रम दूर करना चाहिए । वैसे रस का परित्याग करने वाला व्रती व्यक्ति घी, दूध आदि का त्याग इंद्रियजय की दष्टि से किया करता है। प्रथम पाहार दाता की महिमा जिनेन्द्र भगवान को प्रथम पारणा के दिन क्षीरादि निर्मित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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