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तीर्थंकर
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गतों को अभयप्रदाता परम प्रभु को कौन अभय देगा ? आहार दान तो प्रायः प्रत्येक दिन संभाव्य है ।
किसी असंयमी को भोजन कराने का वह महत्व नहीं है, जो संयमी महान पुरुष को पवित्र भावों सहित आहारदान का है । संयमी आत्मा में अपार आत्म सामर्थ्य रहती है । उसके प्रभाव से आहारदान द्वारा संयम में प्रकारान्तर से सहयोग देने वाले को स्वभावतः महान लाभ होगा । श्रावक के लिए सत्पात्रदान मुख्य कार्य बताया गया है । भगवान की पूजा करना तथा पात्रदान देना गृहस्थ के प्रावश्यक कर्तव्य
गए हैं । इनके बिना वास्तव में श्रावक नहीं कहा गया है । यदि श्रावक पात्रदान के कर्तव्य को भूल जाय, तो मुनिपद का निर्वाह किस प्रकार होगा ? द्यानतराय जी ने ठीक ही लिखा है, 'बिन दान श्रावक साधु दोनों लहें नाँहि बोध कों' ।
मुक्तिपुरी का प्रवेश द्वार
कुछ लोग सत्पात्रदान के आंतरिक रहस्य तथा सौन्दर्य को न समझ यह सोचते हैं कि इस दान के द्वारा पुण्यकर्म का बंध होता है । इससे मोक्ष नहीं मिलता, अतः यह उपादेय नहीं है । इस विकृत विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाला महाराज श्रेयाँसकुमार के जीवन पर दृष्टि डाले और समझे कि इस सत्पात्र दान में कितना रस है ? लौकिक श्रेष्ठ अभ्युदय, प्रतिष्ठादि प्राप्ति के पश्चात् सकल संयम का शरण लेकर दानशिरोमणि श्रेयाँस राजा कर्मक्षय कर सिद्ध भगवान बने । दान के माध्यम से गृहस्थ सत्पुरुषों के निकट संपर्क में आता है और जिस प्रकार पारस के संपर्क से लोहा सुवर्ण बनता है, उसी प्रकार लोह सदृश पतित प्राणी पारस रूप सत्पुरुष के संपर्क द्वारा क्रमशः उन्नति करता हुआ परंज्योति परमात्मा बनता है । आरंभ और परिग्रह के मध्य निमग्न गृहस्थ के लिए पुण्य-पाप बंध को त्याग कर वीतरागता प्राप्त करना शक्य नहीं है । यदि माया जाल के मध्य रहते हुए भी गृहस्थ कर्मजाल काट सकता, तो तीर्थंकर भगवान
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