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________________ तीर्थकर [ १२३ विरले ऋद्धिप्राप्त मुनियों को मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होता है। सर्वार्थसिद्धि में मनःपर्ययज्ञान के विषय में लिखा है, "प्रवर्धमानचारित्रषु चोत्पद्यमानः सप्तविधान्यतद्धिप्राप्तेषूपजायते नेतरेषु । ऋद्धिप्राप्ते केषुचिन्न सर्वेषु-" (सूत्र २५ अध्याय १) यह मन:पर्ययज्ञान प्रवर्धमान चारित्र वालों में से सप्तविध ऋद्धियों में से अन्यतम ऋद्धिधारी मुनियों के पाया जाता है । ऋद्धिप्राप्त साधुत्रों में भी सबमें नहीं पाया जाता, किन्त किन्हीं विरले संयमियों में वह पाया जाता है। अपनी आत्मशुद्धि के कार्य में संलग्न रहने के कारण भगवान अपनी ऋद्धियों का कोई भी उपयोग नहीं करते। उनका मनःपर्ययज्ञान भी एक प्रकार से अलंकार रूप रहता है। उसके प्रयोग करने का कोई विशेष प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता । मौन व्रत रहने से जन संपर्क तथा प्रश्नोत्तरादि की भी कल्पना नहीं की जा सकती। इसी प्रकार शायद ही कभी अवधिज्ञान के भी उपयोग की जरूरत पड़ती हो। यह उज्ज्वल सामग्री उनके श्रेष्ठ व्यक्तित्व को सचित करती थी। वे यात्मतेज संपन्न जगद्गुरु जहाँ भी जाते थे, वहाँ उनके लोकोत्तर महत्व का ज्ञान हो जाता था। अपूर्व प्रभाव उनका प्रभाव अत्यधिक चमत्कार पूर्ण था। जन्मतः हिंसक जीवों के हृदय में उनके कारण दया तथा मैत्री का अवतरण हो जाता था। तपोवन में विद्यमान उन विश्वपिता के प्रभाव को महापुराणकार इस प्रकार चित्रित करते हैं :-- कंटकालग्न-वालाग्राश्चमरीश्च मरीमजाः। नखरैः स्वरहो व्याघ्राः सानुकंपं व्यमोचयन् ॥१८--८३॥ अहो ! जिन चमरी गायों के बालों के अग्रभाग कांटों में उलझ गए थे और जिनको सुलझाने का वे बारबार प्रयत्न करती थीं, ऐसी चमरी गायों को व्याघ्र बड़ी दया पूर्वक अपने नखों से छुड़ा रहे थे। यहां व्याघ्रों के साथ करुणा का पर्यायवाची शब्द 'सानुकम्प' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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