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तीर्थंकर क्षण-क्षण में भगवान के कर्मों की महान् निर्जरा हो रही है । कर्म-भार दूर होने से आत्मा की निर्मलता भी बढ़ रही है। इससे स्वाभाविक शांति तथा प्रानन्द की वृद्धि भी हो रही है । यह आनन्द उस सुख की अपेक्षा अत्यन्त उत्कृष्ट एवं अलौकिक है, जो प्रभु को गृहस्थावस्था में तीव्र पुण्यकर्म के विपाकवश उपलब्ध हो रहा था। भगवान का जीवन अद्भत था। उनकी तपश्चर्या भी असाधारण थी।
अपूर्व स्थिरता
महानशनमस्यासीत् तपः षण्मासगोचरम् ।
शरीरोपचयस्त्विद्धः तथैवास्थादहोधृतिः ॥१८--७३॥ यद्यपि भगवान का छह मास का महोपवास था, फिर भी उनके शरीर का पिड पूर्ववत् ही दैदीप्यमान बना हुआ था। उनकी स्थिरता आश्चर्यकारी थी ।
केशों की जटारूपता
संस्कारविरहात् केशाः जटीभूतास्तदा विभोः । नूनं तेपि तपःक्लेशं अनुसोढ़ तथा स्थिताः ॥७५।।
भगवान के केशों का अब संस्कार नहीं हुया । अतः संस्कार रहित होने के कारण वे केश जटा स्वरूप हो गए । ऐसा प्रतीत होता था, कि वे केश भी तप का कष्ट सहन करने के लिए कठोर हो गए हैं ।
भगवान के लम्बे-लम्बे केश उनकी तपस्या के सूचक थे । इससे यह प्रतीत होता है कि विषय लोलुपी होते हुए भी अनेक साधु महान तपस्या के चिन्ह स्वरूप लम्बे-लम्बे केश धारण करने लगे हैं ।
ऋद्धियों की प्राप्ति
भगवान के अनेक प्रकार की ऋद्धियां उत्पन्न हो गई थीं। मनःपर्ययज्ञान की उत्पत्ति ऋद्धिधारी मुनियों के होती है । उनमें भी
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