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तीर्थंकर
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मानते हैं । वे आत्म देव की समाराधना को मुख्य लक्ष्य बनाकर उस सामग्री तथा पद्धति का आश्रय लेते हैं, जिससे आत्मा में संक्लेश भाव न हो, आर्तध्यान न हो, रौद्रध्यान न हो तथा विशुद्धता की वृद्धि हो । विशुद्ध भावों के होने पर शरीर की बाधा आत्मा को पीड़ाप्रद नहीं होती । आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि योगी इतना अधिक प्रात्मा में तल्लीन रहा करता है, कि उसे अपने शरीर की अवस्था का भान नहीं रहता है । " सः बहिर्दुःखेषु प्रचेतनः " - वह योगी बाह्य दु:खों के विषय में प्रचेतन सदृश रहता है । यदि उसका ध्यान बाहर की ओर ही रहा आवे, तो प्रार्तध्यान के द्वारा आत्मा का भयंकर अहित हो जायगा । इसी कारण जिनागम में त्याग तथा तप के विषय में 'यथाशक्ति' शब्द at प्रयोग किया गया है । " शक्तितस्त्याग-तपसी" रूप तीर्थंकरत्व के हेतु भावना कही गई है ।
तप श्रानन्दप्रद है
एक बात और है, जैसे-जैसे जीव को प्रात्मा का आनन्द प्रान लगता है, वैसे-वैसे उसकी विषयों के प्रति विमुखता स्वयमेव होती जाती है । जिस प्रकार मत्स्य को जल में क्रीड़ा करते समय प्रानंद प्राता है; जल के बिना वह तड़फ - तड़फकर प्राण दे देती है; जल में गमन करने में उसे कष्ट नहीं होता, इसी प्रकार आत्मोन्मुख बनने में मुमुक्षु को सच्ची विश्रान्ति तथा निराकुलता जनित आनन्द प्राप्त होता है । इष्टोपदेश का कथन बड़ा मार्मिक है :---
यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ।
तथा तथा न रोचते विषयाः सुलभा अपि ॥ ३७ ॥ यथा यथा न रोचते विषयाः सुलभा श्रपि ।
तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्वमुत्तमम् ॥ ३८ ॥ जैसी जैसी संवेदना में श्रेष्ठ तत्व - आत्म स्वरूप की उपलब्धि होती है, उसी प्रकार सहज ही उपलब्ध विषय सुख की सामग्री रुचिकर नहीं लगती है । जैसे-जैसे सुलभ विषय प्रिय नहीं लगते हैं, वैसे-वैसे संवेदन में आत्म तत्व की उपलब्धि होती है ।
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