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________________ १२४ ] तीर्थंकर बड़ा मार्मिक है । क्रूरता के परमाणुओं से जिन शेरों की शरीर रचना हुई हो, उनमें अनुकम्पा की उत्पत्ति भगवान के दिव्य प्रभाव को द्योतित करती है। भगवान ने चैत्र में दीक्षा ली थी। उनके समक्ष भीषण ग्रीष्म प्राया और चला गया । वर्षाकाल भी आया । भगवान की स्थिरता में अन्तर नहीं था। वे बाईस परीषहों को सहन करने की अपूर्व क्षमता संयुक्त थे; अतएव भीषण परिस्थितियों में भी वे साम्यभाव सम्पन्न रहते थे । साधारण मनोबल वाले पुरुष भी विपत्ति की वेला में मनस्विता का परिचय देते हैं, तब तो ये असाधारण क्षमतायुक्त तीर्थंकर परम देव हैं । प्राचार्य कहते हैं, 'इस प्रकार छह माह में पूर्ण होने वाले प्रतिमायोग को प्राप्त हुए और धैर्य से शोभायमान रहने वाले भगवान का वह लम्बा काल भी क्षणभर के समान व्यतीत हो गया ।' उपवास के विषय में प्रभु की दृष्टि __ भगवान में अपरिमित शक्ति थी, फिर भी लोगों को मोक्षमार्ग बताने की दृष्टि से भगवान ने आहारग्रहण करने का विचार किया । उपवास के विषय में उन प्रभ का यह अभिमत था :-- न केवलमयं कायः कर्शनीयो मुमुक्षुभिः। नाप्युत्कटरसः पोष्यो मृष्टरिष्टश्च वल्भनेः ॥२०--५॥ मध्यम मार्ग वशे यथा स्युरक्षाणि नोत-धावन्त्यनूत्पथम् । तथा प्रयतितव्यं स्याद् वृत्तिमाधिस्यमध्यमाम् ॥२०--६॥ मोक्षाभिलाषी मुनियों को यह शरीर न तो केवल कृश ही करना चाहिये और न अधिक रसयुक्त, मधुर तथा मनोवांछित पदार्थों के द्वारा इसे पुष्ट ही करना चाहिए । जिस प्रकार इन्द्रियां वश में रहें तथा कुमार्ग की ओर न जावें, उस प्रकार मध्यम मार्ग का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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