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________________ ११६ ] तीर्थंकर समान है । जैसे व्यापारी वर्ग किसी वस्तु का सौदा पक्का करने के हेतु विश्वास संपादन निमित्त कुछ द्रव्य पहले ही दे देते हैं, इसी प्रकार अन्त में केवलज्ञान रूप निधि प्रदान करने के पूर्व मनः पर्ययज्ञान की उत्पत्ति संयम के द्वारा प्रदत्त ब्याना की रकम सदृश है । प्राचार्य के मार्मिक शब्द इस प्रकार हैं : -: चतुर्थीप्यवबोधोस्य संयमेन समर्पितः । तवैवांत्यावबोधस्य सत्यंकार इवेशितुः ॥।७४--३१२।। दीक्षा लेने के अनंतर ही संयम ने केवलज्ञानके ब्याना ( सत्यंकार) के समान भगवान को मन:पर्ययज्ञान नामका चौथा ज्ञान समर्पण किया था । प्रभु की पूजा महाराज भरत ने महामुनि ऋषभनाथ भगवान की अष्टद्रव्यों से भक्तिपूर्वक पूजा की । जिनसेन स्वामी महापुराण में लिखते हैं, कि भरत महाराज ने विविध फलों द्वारा पूजा सम्पन्न की थी :-- परिणतफलभेवै राम्र- जम्बू-कपित्थैः । पनस - लकुच-मीचैः दाडिमेमतुलिगः ॥ क्रमुकरुचिरगुच्छैर्नालिकेरैश्च रम्यः । गुरुचरणसपर्यामातनोबाततश्रीः ॥१७- २५२ ॥ मनोहर श्रम, समृद्ध लक्ष्मीयुक्त महाराज भरत ने पके जामुन, कैथा, कटहल ( पनस ) बड़हल, केला, अनार, बिजौरा नीबू सुपारियों के सुन्दर गुच्छे तथा रमणीय नारियलों से वीतराग गुरु के चरणों की पूजा की थी । वीतराग-वृत्ति कोई पूजा करे तो उस पर उनका रागभाव नहीं था । कोई पूजा, सत्कार न करे, तो उस पर उनके मन में द्वेषभाव नहीं था । वे तो यथार्थ में वीतराग थे । लोग सामान्यतया अध्यात्म की रचना को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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