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________________ तीर्थकर [ ११५ इसी प्रकार नहीं जान सकता, जैसे अन्ध व्यक्ति चक्षुष्मान मानव के ज्ञान की कल्पना नहीं कर सकता है । प्रात्मयज्ञ भगवान ने जगत की तरफ पीठकर दी है। अब उनका मुख आत्मा की ओर है । वे महान आत्म-यज्ञ में लगे हैं। यह यज्ञ विलक्षण है। क्रोधाग्नि, कामाग्नि एवं उदराग्नि रूप तीन प्रकार की अग्नि प्रदीप्त हैं । वे क्रोधाग्नि में क्षमा की आहुति, कामाग्नि में वैराग्य की आहुति तथा उदराग्नि में अनशन की आहुति अर्पण करते रहते हैं । गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण में लिखा है : त्रयोग्नयः समुदृिष्टाः क्रोध-कामोदराग्नयः । तेषु क्षमाविरागत्वानशनाहुतिभिर्वने ॥६७ पर्व, २०२॥ इस अात्मयज्ञ के फल स्वरूप प्रत्येक साधक साधु शीघ्र ही सिद्ध भगवान की पदवी को प्राप्त करता है । मनः पर्ययज्ञान के विषय में उत्प्रेक्षा जब भगवान ने परिग्रहादि का परित्याग करके प्रत्येक बुद्ध श्रमण की वृत्ति अंगीकार की थी, तब उनको पंचम गुणस्थान से सातवें गुणस्थान की अवस्था प्राप्त हुई थी; अंतर्मुहूर्त के पश्चात् वे प्रमत्त संयत बन गए । प्रमत्त दशा से अप्रमत्तता की ओर चढ़ना उतरना जारी रहता था। शीघ्र ही भगवान् को मनःपर्ययज्ञान की प्राप्ति हो गई । यह ज्ञान परिग्रह त्यागी दिगम्बर भालिंगी मुनिराज के ही होता है, गृहस्थ इस ज्ञान के लिए अपात्र है । इस सम्बन्ध में गुणभद्राचार्य ने बड़ी सुन्दर उत्प्रेक्षा की है । वे कहते हैं; भगवान् ने परिग्रह त्याग करके सामायिक संयम को स्वीकार किया है । संयम ने भगवान को मनः पर्ययज्ञान प्रदान किया है, वह एक प्रकार से केवलज्ञान का ब्याना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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