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तीर्थंकर आध्यात्मिक साधना में निमग्नता
चर्म चक्षुओं से देखने पर ऐसा लगता है कि जो पहले निरन्तर कार्यशील प्रजापति थे, वे अब विश्राम ले रहे हैं या अकर्मण्य वन गए हैं, क्योंकि उनका कोई भी कार्य नहीं दिखता । आज का भौतिक दृष्टियुक्त व्यक्ति कोल्हू के बैल की तरह जुते हुए मानव को ही कार्यशील सोचता है । जिस व्यक्ति को खाने की फुरसत न मिले, सोने को पूरा समय न मिले, ऐसे कार्य-संलग्न चिंतामय मानव को लोग कर्मठ पुरुष मानते हैं; इस दृष्टि से तो तपोवन के एकान्त स्थल में विराजमान ये साधुराज संसार के उत्तरदायित्व का त्याग करने वाले प्रतीत होंगे; किन्तु यह दृष्टि अज्ञान तथा अविवेक पूर्ण है।
___अब ये महामुनि अत्यन्त सावधानी पूर्वक प्रात्मा के कलंक प्रक्षालन में संलग्न हैं । आत्मा को सुसंस्कृत बनाने के महान आध्यात्मिक उद्योग में निरत हैं । अनादिकालीन विपरीत संस्कारों के कारण मन कुमार्ग की ओर जाना चाहता है, किन्तु ये प्राध्यात्मिक महायोद्धा बलपूर्वक प्रचंड मन का नियंत्रण करते हैं। जैसे भयंकर हत्या करने वाले आततायी डाकू पर पुलिस की कड़ी निगाह रहती है; एक क्षण भी उस डाकू को स्वच्छंद नहीं रखा जाता, उसी प्रकार ये मुनीन्द्र अपने मन को प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान रूपी डाकुओं से बचाते हैं। उसे स्वकल्याण के कार्यों में सावधानी पूर्वक लगाते हैं ।
शासन व्यवस्था करते समय सुचतुर शासक को जितनी चिंता रहती है तथा श्रम उठाना पड़ता है, उससे अधिक उद्योग प्रभु का चल रहा है। 'वैराग्यभावना नित्यं, नित्यं तत्वानुचितनम्' का महान कार्यक्रम सदा चलता रहता है । क्षणभर भी ये प्रमाद नहीं करते हैं, जैसे यंत्र का चक्र एक जगह रहते हुए भी बड़े वेग से गतिशील रहता है। अत्यधिक गतिशीलता के कारण वह स्थिर रूप सरीखा दिखाई पड़ता है, इसी प्रकार की तीव्र गति इन योगिराज की हो रही है । भोगी व्यक्ति वास्तव में योगी की प्रांतरिक स्थिति को
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