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तीर्थकर
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पढ़कर अपने को वीतराग समझने लगते हैं । गृहवास करने वाला व्यक्ति राग, द्वेष, मोह तथा ममता की मूर्ति रहता है । सहस्र चिताओं तथा प्राकुलताओं का भण्डार रहता है।
परिग्रह का संचय करनेवाला वाचनिक वीतरागता के क्षेत्र में विचरण कर सकता है। बिना अकिंचन वृत्ति को अङ्गीकार किए स्वयं में वीतरागता का अभिनिवेश श्वान को सिंह मानने सदृश अपरमार्थ बात है। किसी गीत को यदि गा लिया कि, हे चेतन ! तू तो कर्ममल रहित है, रागद्वेष रहित है, तू सिद्ध परमात्मा है । उस गीत का गान करते हए नेत्रों से प्रानन्द के अश्र भी टपक पड़े, तो क्या वह गृहस्थ वीतराग विज्ञानता का रसपान करने लगा ? वीतरागता की प्राप्ति तुतलाने वाले तथा खड़े होने में भी असमर्थ बच्चों का खेल नहीं है । अपना सर्वस्व त्याग करके जब आत्मा परमार्थतः स्वाधीन बत्ति को स्वीकार करता है, तब उसे वीतरागता की प्रांशिक उपलब्धि होती है। निर्ग्रन्थ भावलिंगी प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती साधु के पास दूज के चन्द्रमा समान वीतरागता की अल्प ज्योति आती है । मोह कर्म का पूर्ण क्षय होने पर वीतरागता का पूर्णचन्द्र अपनी ज्योत्स्ना द्वारा मुमुक्षु को वर्णनातीत आनन्द तथा शान्ति प्रदान करता है । ऐसे महापुरुष के पास अंतर्मुहूर्त में ही अनन्तज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य आदि गण उत्पन्न हो जाते हैं।
स्वावलम्बी जीवन
भगवान अब उच्च चरित्र को अंगीकार कर वास्तविक वीतरागता के पथ पर चलने को उद्यत हैं, इससे वे यह नहीं सोचते कि मैं महान वैभव का स्वामी रहा हूँ तथा मैं रत्नजटित सिंहासन पर बैठा करता था । मैं सुरेन्द्र द्वारा लाई गई अपूर्व सामग्री का उपभोग करता था।
अब वे तीन लोक के नाथ भूतल पर सोते थे । उनको पृथ्वी तल पर बैठे या लेटे हुए देखकर ऐसा प्रतीत होता था,
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