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तीर्थकर
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नकुलः सहदेवश्च ज्येष्ठदाहं निरीक्ष्य तौ।
अनाकुलितचेतस्को जातौ सर्वार्थसिद्धिजौ ॥६५:-२३॥
नकुल तथा सहदेव ने ज्येष्ठ बन्धुओं के शरीर-दाह की ओर दृष्टि दी थी। इससे आकुलता रहित मनोवृत्तियुक्त होते हुए भी वे शुद्धोपयोग विहीन होने से मोक्ष के बदले सर्वार्थद्धि में पहुँचे ।
इस दृष्टांत से यह बात स्पष्ट होती है, कि अल्प भी रागांश अग्नि कण के समान तपश्चर्यारूप तृणराशि को भस्म कर देता है; अतएव जिस जन-कल्याण को पहले गृहस्थावस्था में भगवान ने मुख्यता दी थी, अब उस अोर से उन्होंने अपना मूख पूर्णतया मोड़ लिया। वे महाज्ञानी होने के कारण मोहनीय कर्म की कुत्सित प्रवृत्तियों का रहस्य भली भांति जानते हैं।
जीवन द्वारा उपदेश
एक बात और है; सच्चे तपस्वी मुख से उपदेश नहीं देते, किन्तु उनका समस्त वीतरागता पूर्ण जीवन मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करता हुआ प्रतीत होता है । पूज्यपाद आचार्य के ये शब्द अत्यन्त मार्मिक हैं 'अवाग्विसर्ग वपुषा मोक्षमार्ग निरुपयंतं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यम्' अर्थात् वाणी का उच्चारण किए बिना अपने शरीर के द्वारा ही मोक्ष के मार्ग का निरूपण करते हुए निर्ग्रन्थाचार्य शिरोमणि थे; अतएव उज्ज्वल आत्मा का जीवन ही श्रेष्ठ तथा प्रभावप्रद उपदेश देता है। भगवान की समस्त प्रवृत्तियाँ अहिंसा की ओर केन्द्रित हैं ।
मौन वाणी का प्रभाव
मौनावस्था में भी संवेदनशील पशु तक भी उस अहिंसा पूर्ण मौनोपदेश को अवधारणकर सम्यक् आचरण करते हुए पाए जाते थे । महापुराणकार लिखते हैं :
मृगारित्वं समुत्सृज्य सिंहाः संहतवृत्तयः । बभायू थेन माहात्म्यं तद्धि योगजम् ॥१८--८२॥
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