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तीर्थकर
। १०६ अवयारं कम्म पि सुहासुहं कुणदि' (३१६ गाथा) शुभ तथा अशुभ कर्म ही जीव का उपकार तथा अपकार करते हैं । अध्यात्मशास्त्र स्वतत्व की मुख्यता से कहता है, कि एक द्रव्य दूसरे का कुछ भी भला बुरा नहीं करता है । समयसार में कितनी सुन्दर बात लिखी है :--
अण्णदविएण अणदविपस्स ण कोरए गुणुप्पागो।
तम्हा उ सव्वदव्वा उप्पज्जते सहावेण ॥३७२॥
अन्य द्रव्य के द्वारा अन्य द्रव्य में गुण का उत्पाद नहीं किया जा सकता, अतएव सर्व द्रव्य स्वभाव से उत्पन्न होते हैं।
मोक्षाभिलाषी श्रमण की दृष्टि यदि तनिक स्व से बहिर्भूत हो गई तो उस आत्मा को लक्ष्य से च्युत हो जाना पड़ता है । सूक्ष्मतम भी रागांश जगकर इस आत्मा को संसार जाल में फंसा देता है ।
हरिवंशपुराण में लिखा है कि दुर्योधन के कुटुम्बियों ने आत्मध्यान में निमग्न पांचों पांडवों पर भयंकर उपसर्ग किए थे। अग्नि में संतप्त लोहमयी आभूषण उनके शरीर को पहिनाए थे । उस उष्ण परीषह को उन्होंने शांत भाव से सहन किया था ।"रौद्रं दाहोपसर्ग ते मेनिरे हिमशीतलम्' (सर्ग ६५--२१) उन्होंने भीषण दाह की वेदना को हिम सदृश शीतल माना ।
शुक्लध्यानसमाविष्टा भीमार्जुनयुधिष्ठिराः।
कृत्वाष्टविष-कर्मान्तं मोक्षं जग्मुम्बयोऽक्षयं ॥६५--२२॥
भीम, अर्जुन तथा युधिष्ठिर ने शुक्ल ध्यान को धारण करके आठ कर्मों के क्षय द्वारा अविनाशी मोक्ष को प्राप्त किया ।
बहिर्दृष्टि का परिणाम
उस समय नकुल तथा सहदेव का ध्यान ज्येष्ठ बन्धुओं के देहदाह की ओर चला गया, इससे उनको मोक्ष के स्थान में सर्वार्थसिद्धि में जाकर तेतीस सागर प्रमाण स्वर्ग में रहना पड़ा। इस समय तीन पांडव मोक्ष में हैं, किन्तु नकुल और सहदेव संसार में ही हैं। हरिवंशपुराण में लिखा है :
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