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तीर्थकर मैं नेत्रों के द्वारा जिस रूप का (शरीर का) दर्शन करता हूँ, वह तो पूर्णतया ज्ञान रहित है । ज्ञानवान आत्मा में रूपादि का असद्भाव है । उसका दर्शन नहीं होता है; ऐसी स्थिति में किसके साथ बातचीत की जाय ?
आचार्य का भाव सूक्ष्म तथा गंभीर है। मैं तो ज्ञानमय चैतन्य ज्योति हूँ । दूसरे व्यक्ति के शरीर में विद्यमान ज्ञानमय प्रात्मा का दर्शन नहीं होता । दर्शन होता है रूपवान देह का, जो ज्ञान रहित है । अतः ज्ञानवान यात्मा ज्ञान रहित शरीर से किस प्रकार वार्तालाप करे ? इस विचार द्वारा साधु वाह्य जल्प को बंद करते हैं । मन में जो अंतर्जल्म होता है, उस विकल्प के विषय में स्वानुभूति का अमृत रसपान करने वाले प्रात्म-निमग्न साध सोचते हैं :--
यत्परैः प्रतिपाद्योहं यत्परान् प्रतिपादये ।
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निविकल्पकः ॥१६॥
मैं वचनादि विकल्पों से रहित निविकल्प अवस्था वाला हूँ; अतः मैं दूसरों के द्वारा प्रतिपाद्य हूँ (प्रतिपादन का विषय हूँ) अथवा मैं दूसरों को प्रतिपादन करता हूँ, ऐसी मेरी चेष्टा यथार्थ में उन्मत्त की चेष्टा सदृश है । इस चितन द्वारा मुनीन्द्र अंतर्जल्प का भी त्याग करते हैं।
निश्चयदृष्टि की प्रधानता
___भगवान् का लक्ष्य है शुक्ल ध्यान की उपलब्धि । उन्होंने मुमुक्षु होने के कारण विशुद्ध तात्विक दृष्टि को प्रमुख बनाया है। अब वे आत्म-सापेक्ष निश्चय दृष्टि को प्रधानता देते हैं। इसलिये वे स्वोपकार में संलग्न है । परोपकार संपादनार्थ बोलने की रागात्मक परणति उन्हें मुक्ति की प्राप्ति में बाधक लगती है। उनकी दृष्टि है कि कोई किसी दूसरे जीव का न हित कर सकता है, न अहित ही कर सकता है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है 'न कोवि जीवस्स कुणइ उवयारं' ---जीव का कोई अन्य उपकार नहीं करता है; 'उवयारं
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