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तीर्थकर
[ १०७ है । प्रात्मा की प्रसुप्त लोकोत्तर शक्तियां जागृत होती हैं । मोक्षपुरी के पथिक की प्रवृत्ति संसार वन में भटकने वाले प्राणी की अपेक्षा पूर्णतया पृथक् होती है।
तीर्थंकर भगवान ने जीवन में सदा श्रेष्ठ कार्य ही संपन्न किए हैं। तप के क्षेत्र में भी पदार्पण करने पर उनकी संयम-साधना सर्वोपरि रही है, अतएव केवलज्ञान की उपलब्धि पर्यन्त उन्होंने श्रेष्ठ मौन व्रत स्वीकार किया ।
विशेष कारण
उनके श्रेष्ठ मौन का एक विशेष रहस्य यह भी प्रतीत होता है, कि अब वे मुख्यता से अंत: निरीक्षण तथा आत्मानंद में निमग्न रहने लगे। अब वे विशुद्ध तत्व का दर्शन कर रहे हैं। जब तक भगवान् ने मुनि पदवी नहीं ली थी, तब तक उनको महान् ज्ञानी माना जाता था । थे भी वे महान् ज्ञानी । जन्म से अवधिज्ञान की विमल दृष्टि उनको प्राप्त हुई थी ; दीक्षा लेने के उपरान्त वे प्रभु मन:पर्ययज्ञान के अधिपति हो जाते हैं। उनके क्षायोपशामिक ज्ञान चतुष्टय अपूर्व विकास को प्राप्त हो रहे हैं, किन्तु वे आत्म-निरीक्षण द्वारा स्वयं को ज्ञानावरण, दर्शनावरण के जाल में फंसा हुआ देखते हैं। इसीलिए दीक्षा लेने के बाद जब तक साधना का परिपाक कैवल्य ज्योति के रूप में नहीं होता है, तब तक भगवान् को 'छदास्थ' शब्द से (अागम में) कहा गया है । अपरिपूर्ण ज्ञान की स्थिति में परिपूर्ण तत्व का प्रकाशन कैसे संभव होगा? ऐसी स्थिति में मौन का शरण स्वीकार करना उचित तथा श्रेयस्कर है ।
इन प्रसंग में तत्वदर्शी परम योगी पूज्यपाद मुनीन्द्र का यह कशन बहुत मार्मिक है :
ran दश्य र तन्ना जानाति सर्वथा। आनन्न दृश्यले रूपं ततः केन प्रवीभ्यहम् ॥१८॥
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