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तीर्थंकर में फंसे बिना न रहता, और कुछ न कुछ अवश्य कहता, किन्तु ये वीतराग जिनेन्द्र महामौनी ही रहे पाए ।
यदि भगवान ने मौनव्रत न लिया होता और उनका उपदेश प्राप्त होता, तो उनके साथ में दीक्षित चार सहस्र राजाओं को प्रभु द्वारा उद्बोधन प्राप्त होता तथा उनका स्थितीकरण होता । उन प्रभु को छह माह से अधिक काल पर्यन्त आहार की प्राप्ति नहीं हुई, क्योंकि लोगों को मुनियों को आहार देने की पद्धति का परिज्ञान न था । यदि भगवान् का मौन न होता, तो चतुर व्यक्ति को प्रभु के द्वारा श्रावकों के कर्तव्य का स्वरूप सहज ही अवगत हो सकता था ।
मौन का रहस्य
कोई व्यक्ति पूछ सकता है कि मौन लेने में क्या लाभ है ? प्रकृति के द्वारा प्राप्त संभाषण की सामग्री का लाभ न लेना अनुचित
इस शंका का समाधान महान योगी पूज्यपाद महर्षि की इस उक्ति से हो जाता है :
जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनसश्च चित्त-विभ्रमाः। भवति तस्मात्संसर्ग जनर्योगी ततस्त्यजेत् ।। समाधिशतक ७२॥
लोक संपर्क होने पर वचनों की प्रवृत्ति होती है । इस वचन प्रवृत्ति के कारण मानसिक विकल्प उत्पन्न होते हैं। उससे चित्त में विभ्रम पैदा होता है; अतएव योगी जन-संसर्ग का परित्याग करे।
मन को जीतना अत्यन्त कठिन कार्य है। तनिक भी चंचलता का कारण प्राप्त होते ही मन राग-द्वेष के हिंडोले में झलना प्रारम्भ कर देता है; अतएव जिन महान् आत्माओं ने योग विद्या का अंतस्तत्व समझ लिया है, वे मौन को बहुत महत्व देते हैं। मौन के आश्रय से चित्त की चंचलता को न्यून करने में सहायता प्राप्त होती
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