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________________ तीर्थकर [ १११ सिंह, हरिण आदि जन्तुओं के साथ वैरभाव छोड़कर हाथियों के समुदाय के साथ मिलकर रहने लगे थे। यह सब प्रभु के योग का प्रभाव ही था। प्रस्तुवाना महाव्याघ्री रुपेत्य मृगशावकाः । स्वजनन्यास्थया स्वरं पीत्वा स्म सुखमासते ॥१८--८४॥ मृगों के बच्चे दूध देती हुई महा बाघनियों के पास जाते हैं । वे उनको स्व-जननी सोचकर इच्छानुसार दूध पीकर सुखी हो रहे हैं । शक्ति संचय मौन द्वारा भगवान अलौकिक शक्ति संचय कर रहे हैं, उसके फल स्वरूप केवलज्ञान होने पर उनकी दिव्यध्वनि द्वारा असंख्य जीवों को सच्चे कल्याण की प्राप्ति होती है। इस विवेचन के प्रकाश में सभी तीर्थंकरों का दीक्षा के उपरान्त मौन धारण करने का दृष्टिकोण स्पष्ट हो जाता है । यह मौन महान तप है, इच्छाओं के नियंत्रण का महान् कारण है। त्यागे गये वस्त्रादि का प्रादर भगवान ने दीक्षा लेकर तपोवन का मार्ग ग्रहण किया । पर्व में उनसे संबंध रखने वाले वस्त्रादि के प्रति इन्द्रादि ने बड़ा आदर भाव व्यक्त किया । यथार्थ में यह आदर भगवान के प्रति समझना चाहिए। महापुराणकार कहते हैं : वस्त्राभरण-माल्यानि यान्युन्मुक्तान्यधीशिना । तान्यप्यनन्य-सामान्यां निन्युरत्युन्नति सुराः॥१७-२११॥ भगवान ने जिन वस्त्र, आभूषण, माला आदि का त्याग किया था; देवों ने उन सब का असाधारण आदर किया। केशों की पूज्यता केशलोंच के उपरान्त केशों का तक आदर हुआ । भक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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