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तीर्थंकर
वैराग्य की ज्योति प्रदीप्त होने पर तीर्थंकर शीतलनाथ भगवान के मनोभावों को गुणभद्रस्वामी इस प्रकार प्रकाशित करते हैं :विषवैरेव चेत्सौख्यं तेषां पर्यन्तगोम्म्यहम् ।
ततः कुतो न मे तृप्तिः मिथ्या वैषयिकं सुखम् ॥६-४१ ॥ इन्द्रियों के प्रिय भोग सामग्री से यदि आनन्द प्राप्त होता है, तो मुझे सीमातीत विषय सामग्री उपलब्ध हुई है, तब भी मुझे तृप्ति क्यों नहीं प्राप्त होती है ? अतः तत्व की बात यही है कि भोगसामग्री पर निर्भर सुख प्रयथार्थ है ।
श्रौदासीन्यं सुखं तच्च सति मोहे कुतस्ततः । मोहारिमेव निर्मूलं विलयं प्रापये द्रुतम् ॥६-४२॥
सच्चा सुख राग-द्वेष रहित उदासीन परणति में है । वह सुख मोह के होते हुए कैसे प्राप्त होगा ? इससे मैं शीघ्र ही मोह रूपी शत्रु को जड़ मूल से नष्ट करूँगा । मोह ही असली शत्रु है, क्योंकि उसके कारण आत्मा सत्य तत्व को प्राप्त करने से वंचित हो जाता है ।
पूर्व बात
आचार्य कहते हैं
हमन्यदिति द्वाभ्यां शब्दाभ्यां सत्यमर्पितम् ।
तथापि कोप्ययं मोहादाग्रहो विग्रहादिषु ॥८- ४२ उत्तरपुराण || 'अहं' अर्थात् मैं 'अन्यत्' अर्थात् पृथक् हूँ — इन दो शब्दों में सत्य विद्यमान है, किन्तु मोहवश जीव की शरीरादि के विषय में ममता उत्पन्न होती है । प्रर्थात् मोह के कारण 'अहं अन्यत्' मैं पुद्गल से अलग हूं इस सत्य तत्व का विस्मरण हो जाता है ।
उज्ज्वल निश्चय
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अतएव भगवान् प्रपने मन में यह निश्चय करते हैं । छेतु मूलात्मकर्मपाशानशेषान्सद्य स्तीक्ष्णैस्तद्य तिष्ये तपोभिः । को वा कारागाररुद्धं प्रबुद्धः शुद्धात्मानं वीदय कुर्यादुपेक्षां ॥२० - २३॥
धर्मशर्माभ्युदय
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