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तीर्थंकर
उस सिंह ने समस्त प्रहार त्याग के सिवाय अन्य साधारण नियम नहीं लिया था, क्योंकि मांस के सिवाय उसका अन्य प्रकार का आहार नहीं था । इससे बड़ा साहस और क्या हो सकता है ?
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सिंह की शिक्षा
आज मांसाहार में प्रवृत्त होने वाला तथा अपने को सभ्य और सुसंस्कृत मानने वाला मनुष्य की मुद्राधारी प्राणी गम्भीरता पूर्वक इस मांसत्यागी मृगपति के जीवन को देखकर क्या कुछ प्रकाश प्राप्त करेगा ?
इस सत्य दृष्टान्त से यह बात स्पष्ट होती है कि जीवन में कालब्धि का कितना महत्वपूर्ण स्थान है । जो योग्य कालादि सामग्री को प्राप्त कर प्रमादी बनते हैं, उनको जीवन- प्रदीप बुझने के बाद पाप के फल से नरक में जाकर पश्चात्ताप करने तथा वर्णनातीत दुःख भोगने के सिवाय और कुछ नहीं मिलता है । तीर्थंकर पदवी के स्वामी होते हुए भी परिग्रह का त्याग कर आत्मशांति के लिए तपोवन की ओर प्रस्थान करने वाली श्रेष्ठ ग्रात्माओं को देखकर मोही जीव को अपने लिए शिक्षा लेनी चाहिये ।
वैराग्य ज्योति
धर्मशर्माभ्युदय में भोगों से विरक्त धर्मनाथ जिनेन्द्र के उज्ज्वल भावों का इस प्रकार चित्रण किया गया है। बालं वर्षीयांसमाद्यं दरिद्रं धीरं भीरूं सज्जनं दुर्जनं च ।
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प्रश्नात्येकः कृष्ण वर्मेव कक्षं सर्वग्रासी निविवेकः कृतान्तः ।।२० -- २ विवेक शून्य यमराज बालक को, वृद्ध को, धनी को, निर्धन को, धीर को, भीरु को, सज्जन को, दुर्जन को भक्षण करता है । इसी से उसे सर्वग्रासी अर्थात् सब को ग्रास बनाने वाला कहते हैं। जैसे अग्नि समस्त जङ्गल को जला डालती है, इसी प्रकार यमराज भी सबको स्वाहा कर देता है ।
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