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तीर्थंकर चतुर्थकाल को समाप्त होने के तीन वर्ष साढ़े पाट माह शेष रहने पर मुक्ति-रमा का स्वामी बन गया । काललब्धि भी अद्भुत है ।
सिंह का भाग्य
सिंह पर्यायधारी जीव हरिण-भक्षण में उद्यत था। उसे अजितंजय तथा अमितगुण नाम के चारणमुनियुगल का उपदेश सुनने का सुयोग मिला। काललब्धि की निकटता आ जाने से उस सिंह को धर्मोपदेश प्रिय लगा । उत्तरपुराण में गुणभद्र स्वामी उस मृगेन्द्र के विषय में लिखते हैं
तत्वश्रद्धानमासाद्य सद्यः कालादिलब्धितिः। प्रणिवाय मनः श्रावकव्रतानि समावदे ॥७४--२०८।।
कालादि की लब्धि मिल जाने से उस सिंह ने तत्वश्रद्धान अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त कर श्रावक के व्रतों को चित्तपूर्वक स्वीकार किया । प्राचार्य की उस मृगपति के विषय में यह उक्ति अत्यन्त मार्मिक है :--
स्थिररौद्र रसः सद्यः स शमं समधारयत् ।
सन्छलषसमो मोह-क्षयोपशमभावतः ॥७४--२१०॥
मोहनीय का क्षयोपशम होने से स्थिरता को प्राप्त रौद्ररसधारी उस सिंह ने कुशल अभिनेता के समान तत्काल शान्त रस को धारण किया; अर्थात् सदा रौद्र परिणाम वाला सिंह अब प्रशान्त परणति वाला बन गया।
काललब्धि आदि के सुयोग समन्वित उस सिंह ने जन्मतः माँसाहारी होते हुए भी मांस का परित्याग कर परम कारुणिकता अङ्गीकार की । गुणभद्राचार्य भविष्य में सिंह के चिन्ह वाले वर्धमानभगवान बनने वाले उस मृगपति के विषय में लिखते हैं :--
व्रतं नैतस्य सामान्यं निराहारं यतो विना । व्यावन्योस्य नाहारः साहसं किमतः परम् ॥७४--२११॥
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