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________________ [ ८७ उन भगवान् ने आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा के दिन कृतयुग का प्रारम्भ करके ' प्रजापति' संज्ञा को प्राप्त किया था । तोर्थंकर वरर्ण-व्यवस्था श्रागमोक्त है इस वर्णन से यह बात स्पष्ट होती है, कि जिस विदेह क्षेत्र में सदा तीर्थंकरों का सानिध्य प्राप्त होता है, तथा उनके द्वारा जीवों को मार्ग दर्शन प्राप्त होता है, वहाँ वर्णाश्रम व्यवस्था है । इस भरत क्षेत्र में भगवान् आदि ब्रम्हा ऋषभदेव ने जो वर्ण व्यवस्था का उपदेश दिया था, वह उन्होंने अपनी कल्पना द्वारा नहीं रचा था, बल्कि उन्होंने विदेह * क्षेत्र की व्यवस्था ( जहाँ नित्य कर्मभूमि है) के अनुसार भरतक्षेत्र की भी व्यवस्था का उपदेश दिया, क्योंकि यहाँ भी कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हो गया था । कोई कोई यह सोचते हैं, कि जैनधर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रभाव है । वह तो ब्राह्मण धर्म की नकल या प्रभाव मात्र है । यह कथन महापुराण रूप आगम ग्रंथ के वर्णन के प्रकाश में प्रयथार्थ प्रमाणित होता है । आगम के आधार को प्रमाणिक मानने वाला मुमुक्षु तो यह सोचेगा, कि अन्य परम्परा में पाई जाने वाली व्यवस्था जैन परम्परा से ली गई है और उस पर उन्होंने अपनी पौराणिक, वैज्ञानिक पद्धति की छाप लगा ली है । यह वर्ण-व्यवस्था भगवज्जिनसेन स्वामी की निजी मान्यता है, और उन्होंने उसे प्रागम का रूप दे दिया है । ऐसा कथन अत्यन्त अनुचित तथा प्रशोभन है । जिनसेन स्वामी सदृश सत्य महाव्रती श्रेष्ठ आत्मा के विषय में ऐसा आरोप जघन्यतम कार्य है । उन पर ऐसा प्रतारणा का दोष लगाना महा पाप है । आजकल वर्णाश्रम व्यवस्था की पुण्य पद्धति के मूल पर कुठाराघात * पूर्वापरविदेहेषु या स्थितिः समवस्थिता । साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्त्यमूः प्रजाः ।। १६-१४३, महापुराण ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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