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तीर्थंकर
होने से प्रजा की जीविका की समस्या उलझकर जटिलतम बनती जा रही है । इसके कारण ही सबका ध्यान आत्मा के स्थान में पेट की रोटी की ओर मुख्यता से जाया करता है । तीर्थंकर भगवान् द्वारा प्रतिपादित पद्धति के विरुद्ध जितनी प्रवृत्ति बढ़ेगी, उतनी ही प्रशांति तथा दुःख की भी वृद्धि हुए बिना न रहेगी ।
राज्याभिषेक
जब भगवान् के द्वारा व्यवस्था प्राप्त कर प्रजा सुख से रहने लगी, तब बड़े वैभव के साथ भगवान् का प्रयोध्यापुरी में राज्याभिषेक हुआ था। उस राज्याभिषेक के लिये गंगा और सिंधु महानदियों का वह जल लाया गया था, जो हिमवत् पर्वत की शिखर पर से धारा रूप में नीचे गिर रहा था तथा जिसका भूतल से स्पर्श नहीं हुआ था । पद्म, महापद्मप्रादि सरोवरों का जल, नंदीश्वर द्वीप संबंधी नंदोत्तरा आदि वापिकाओं, क्षीर समुद्र, नंदीश्वर समुद्र, स्वयंभुरमण समुद्र आदि का भी जल उस राज्याभिषेक के लिए लाया गया था ।
पहले सुवर्ण निर्मित कलशों द्वारा इन्द्र ने राज्याभिषेक किया । इसके अनन्तर नाभिराज आदि अनेक राजाओं ने 'प्रयं राजसिंहः राजवत्' -- राजाओं में श्रेष्ठ ये वृषभदेव राज्य पद के योग्य हैं ऐसा मानकर उनका एक साथ अभिषेक किया था ।
जनता द्वारा चररणों का अभिषेक
नागरिकों ने भी उनके चरणों का अभिषेक किया था । किन्हीं ने कमल पत्र के बने हुए दोने से और किसी ने मृत्तिका पात्र में सरयू का जल लेकर चरणाभिषेक किया था । पहले तीर्थं जल से अभिषेक हुआ था, पश्चात् कषाय जल से और अन्त में सुगंधित जल द्वारा अभिषेक सम्पन्न हुआ था । इसके अनंतर कुछ कुछ गरम जल से भरे हुए सुवर्ण के कुण्ड में प्रवेश कर उन प्रजापति प्रभुने सुखकारी स्नानका अनुभव किया था ।
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