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तीर्थंकर
वाणिज्य (व्यापार) तथा शिल्प (शिल्पं स्यात्करकौशलम्) हस्त की कुशलता से जीविका करना ये छह कार्य प्रजा के जीवन के हेतु हैं ।
___ भगवान् ने अपनी बुद्धि की कुशलता से प्रजा को उनके द्वारा वृत्ति अर्थात् प्राजीविका करने का उपदेश दिया, क्योंकि उस समय भगवान् सरागी थे ।
वर्ण-व्यवस्था
उत्पादिता स्त्रयो वर्णाः तदा तेनादिवेधसा। क्षत्रियाः वणिजः शद्राः क्षतत्राणादिभिर्गणः ॥१८३॥
उस समय उन आदि ब्रह्मा भगवान् ने तीन वर्ण उत्पन्न किए, जो क्षत-त्राण अर्थात् विपत्ति से रक्षण करना, कृषि, पशुपालन, तथा सेवादि गणों के कारण क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र कहलाए ।*
यावती जगती वृत्तिः अपापोपहता च या।
सा सर्वास्य मतेनासीत् स हि धाता सनातन : ॥१८॥
उस समय जगत् में जितने पाप रहित आजीविका के उपाय थे, वे सब वृषभदेव भगवान् की सम्मति से प्रवृत्त हुए थे, क्योंकि वे ही सनातन ब्रह्मा हैं। भगवान् ने कृतयुग-कर्मभूमि का प्रारम्भ किया था।
कर्मभूमि का प्रारम्भ
प्राषाढ़ मासबहुल-प्रतिपदिविसे कृती।
कृत्वा कृतयुगारंभं प्राजापत्यमुपेयिवान् ॥१६२॥ *उत्तरपुराण में आचार्य गुणभद्र ने जातिमूढ़ता का दोषोद्भावन करते हुए लिखा है कि शुक्लध्यान के लिये उच्चगोत्र, जाति-वर्ण आदि की भी आवश्यकता है । यह विशेषता त्रिवर्ण में है । शूद्र वर्ण में यह नहीं पाई जाती । आगम के श्रद्धालुओं का ध्यान स्वामी गुणभद्र के इस पद्य की ओर जाना चाहिए :--
जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः ।।७४-४६३।।
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