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________________ तीर्थकर [ ८५ घर आदि की पृथक्-पृथक् रचना हैं, उसी प्रकार की व्यवस्था यहाँ भी होना चाहिए । इन्हीं उपायों से प्राणियों की आजीविका चल सकती है और अन्य उपाय नहीं है । कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से अब कर्मभूमि का प्रादुर्भाव हुअा है; इसलिये कृषि प्रादि षट्कर्मों के द्वारा अपनी जीविका करना उचित है । जिनमन्दिर का निर्माण इस प्रकार विचार करने के उपरांत भगवान् ने प्रजा को अाश्वासन दिया, कि तुम भयभीत मत होओ। इसके पश्चात् भगवान् के द्वारा स्मरण किए जाने पर देवों के साथ इन्द्र ने वहाँ आकर प्रजा की जीविका के लिए उचित कार्य किया । *सर्व प्रथम इन्द्र ने योग्य समय, नक्षत्र, लग्न आदि के संयोग होने पर अयोध्या पुरी के मध्य में जिन मन्दिर की रचना की; पश्चात् चारों दिशाओं में भी जिनमंदिरों की रचना की । तदनन्तर ग्राम, नगरादि की रचना संपन्न की । उन ग्रामादि में प्रजा को बसाकर भगवान् की आज्ञा लेकर इन्द्र स्वर्ग चला गया । भगवान् ने प्रजा को छह कर्मों द्वारा प्राजीविका करने का उपदेश दिया था। षट् कर्म असिमषिः कृषिविद्या वाणिज्य शिल्पमेव च। कर्माणीमानि षोढ़ा स्युः प्रजाजीवनहेतवः ॥१७॥ तत्र वृत्ति प्रजानां स भगवान् मतिकौशलात् । उपादिक्षत् सरागो हि स तदासोज्जगद्गुरुः ॥१०॥ असि (शस्त्रकर्म), मषि (लेखन कर्म), कृषि, विद्या अर्थात् शास्त्र के द्वारा उपजीविका करना (विद्या शास्त्रोपजीवने), *शुभे दिने सुनक्षत्रे सुमुहूर्त-शुभोदये ।। स्वोच्चस्थेषुग्रहेषुच्च प्रानुकल्ये जगद्गुरोः ।।१४६।। कृतप्रथम-मांगल्ये सुरेन्द्रो जिनमंदिरम् । न्यवेशयत्पुरस्यास्य मध्ये दिक्ष्वप्यनुक्रमात ।।१५०, पर्व १६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001932
Book TitleTirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherTin Chaubisi Kalpavruksh Shodh Samiti Jaipur
Publication Year1996
Total Pages998
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & philosophy
File Size17 MB
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